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अमरचंद्र की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
भी छोड़ दी। अपनी आत्मा के समान इसके प्रेम को मानता हुआ मैं मूढ़ इतने दिनों तक इसके आज्ञाकारी की भािँ रहा। यह भी अगर इस प्रकार की लीला को पैदा करती है, तो फिर मानना होगा कि नारी का प्रेम कहीं भी निश्चल नहीं है। यह पुरुष भी साहसी है, जो मरने के लिए यहाँ आ गया है। अतः इसको मारता हूँ-इस प्रकार सोचकर तलवार म्यान से बाहर निकाली। अरे! मरने के इच्छुक ! तुम कौन हो ? क्या नहीं जानते कि यह मेरा अंतःपुर है । अपने इष्ट देवता का स्मरण कर, जिससे तुम्हें यम का अतिथि बनाऊँ । राजा का ही रूप बनाकर आये उस पुरुष ने “ मैं राजा हूँ" इस प्रकार बोलते हुए राजा का गला पकड़कर राजा को बाहर निकालने लगा। उस उपपतिरूप पुरुष को मारने के लिए राजा ने सैनिकों को आदेश दिया। उसे घेरकर जब उसे देखा, तो वे भी हैरान हो गये। अपने मित्र कुरुचन्द्र को राजा ने बुलाया, तो वह भी उसको देखकर हेरान रह गया कि अति साम्यता होने से कौन राजा है ? कुरुचन्द्र ने सभी के समक्ष उन दोनों में से राजा को जानने के लिए दिव्य हार माँगा, तो दोनों ने ही उसे वह शुद्ध हार दिया। दोनों से एक तरफ अलग-अलग ले जाकर एकान्त में बातचीत की, तो दोनों ने ही संपूर्ण वृतान्त एक समान बताया। कुरुचन्द्र ने विचार किया कि हमारे राजा के सिवाय अन्य कोई भी परकुटीप्रवेश विद्या नहीं जानता । अतः निर्णय हो जायगा। वास्तविक राजा अमरचन्द्र जल्दबाजी में उस विद्या को भूल गया ओर मायावी राजा परकुटीप्रवेश कर गया।
तब राज्य से उसे निर्वासित कर दिया गया। निर्वासित राजा ने खेदित होते हुए विचार किया कि हा! मैं निर्भागी हूँ। मेरा राज्य दैव द्वारा कैसे हर लिया गया । भ्रष्ट राज्य वाला मैं अब जीकर क्या करूँगा? ऐसा विचार कर वह पर्वत से छलांग लगाकर मरने के लिए पर्वत पर गया। वहाँ ध्यान में स्थित साधु ने राजा को मरने की इच्छा करते देखा। उन्होंने ध्यान पारकर कहा - हे भद्र! क्या तुम मरना चाहते हो? उसने अपने वैराग्य के कारण रूप अपने संपूर्ण वृतान्त को बताया। मुनि ने कहा- महाराज ! वह देव तुम्हारा पूर्वभव का मित्र था । राजा ने कहा- तो फिर उसकी इस प्रकार की दुश्मनी का क्या कहना ? क्या मित्र भी इस तरह के अपकार-कारक होते है ? गुरु ने कहाराजन् समाधान देने वाला उसका तथा तुम्हारा पूर्वभव ध्यानपूर्वक सुनो।
मेघपुर में मेघवाहन नामक राजा था। श्री व्ययकरण प्रियंकर व शुभंकर नामके दो अमात्य थे । उन दोनों की परस्पर मैत्री अति गहरी थी। एक व्यापार की तरह उन दोनों का साहचर्य भी एक था। व्यापार की तरह उन दोनों पार्थिवों ने एक धर्माचार्य के पास एक साथ गृहीधर्म स्वीकार किया। व्यापार के राजकार्य में परवश रहने पर भी बीच-बीच में वे धर्म क्रियायें भी अति विवेकी की तरह नित्य करते थे। एक बार रात्रि में प्रत्याख्यान काल में प्रियंकर ने देशावकाशिक व्रत का सर्वात्मना, संक्षेपणात्मक रूप से विचार किया- “सापराधी जीव भी मेरे द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए। दूसरे को अनर्थकारी सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए। अदत्त का सर्वथा ग्रहण नहीं करूँगा। निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करुँगा। अधिक होने पर भी कुछ भी परिग्रह नहीं करूँगा। बड़े से बड़ा कारण होने पर भी घर के बाहर नहीं जाऊँगा । चार प्रकार का आहार भी ग्रहण नहीं करूँगा। दूसरों द्वारा पहने हुए वस्त्र भी धारण नहीं करूँगा । पुष्प - भक्षण नहीं करूँगा, न विलेपन करूँगा। वाहन पर नहीं चढूँगा । सर्वथा स्नान भी नहीं करूँगा । रूई सहित एक ही पलंग सोने के लिए धारण करूँगा । चारों प्रकार का अनर्थदण्ड भी अब नहीं करूँगा।" सूर्योदय से सूर्यास्त तक मेरे ये सारे अभिग्रह रहेंगे। राजा ने रात में उस महामात्य को बुलाया। उसने राजा के मुनष्य को अपने अभिग्रह स्वयं निवेदन किये। यह जानकर कुपित राजा ने उस नोकर से कहा जा रे ! उसे अभिग्रह में रहने दो। मेरी मुद्रा लेकर आ जाओ । महामात्य ने भी वह मुद्रा उसे दे दी । धर्म में दृदमति वाले उस धीमान ने अपना अभिग्रह खण्डित नहीं किया। उसके निश्चय से प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उसके घर जाकर पुनः सम्मानपूर्वक व अनुरोधपूर्वक वह मुद्रा उसे अर्पित की।
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