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अमरचंद्र की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् तुम्हारी होगी। कर्म विधि के नाटक के आरंभ में ही भावीवृत्त का सूचत करनेवाली राजा की शुभाशीष को धारणकर कुमार भी वेग से वहाँ गया। स्वयंवर में सभी राजाओं के विराजमान हो जाने पर उन सबके बीच युवराज सिंह के पुत्र की तरह शोभित हो रहा था। जयश्री ने भी संपूर्ण राजाओं के समूह को देखा। पर जो खुशी सुरसुन्दर राजा के नन्दन को देखकर हुई, वह और कहीं नहीं हुई। उसे देखकर दृष्टि के विकास से अपने ज्ञान से उस पूर्वभव के पति को पहचानकर उसके गले में वरमाला डाल दी। तब दूसरे सभी राजा कुपित हो गये। राजा ने वीर दूतों को आदेश देकर उन्हें युद्ध के लिए आह्वान किया। युद्ध को उपस्थित जानकर कुमार ने अपने मित्र से कहा-मैं इसके प्रेम की परीक्षा किये बिना अपने प्राणों को संशय में कैसे डालूँ? तब उसके मित्र कुरुचन्द्र ने कहा-शिर की वेदना की भयंकरता का नाटक करके छभपूर्वक सो जाओ। वह भी परकुटी-प्रवेश विधि के द्वारा मृत की तरह सो गया। शोक से आर्त लोगों द्वारा उसे चिता पर रख दिया। क्योंकि
मृते काऽन्या प्रति क्रिया । मरने पर (जलाने के अलावा) अन्य क्या प्रतिक्रिया हो सकती है।
जयश्री भी यह सब देखकर उस प्रकार से दुःख को प्राप्त हुई। उसमें अत्यधिक दृढ़ प्रेमासक्ति होने के कारण उसके साथ मरण स्वीकार करना तय किया। जन्मान्तर में भी यही मेरे पति हो-यह कहकर वह भी उसी चिता पर चढ़ गयी। यह देखकर सारे राजा उसके पास गये और कहा-हे शुभ्रे! व्यर्थ ही अपने प्राणों का त्याग मत करो। इससे तुम्हारा परिणय तो नहीं हुआ, मात्र वरण ही किया है और यह मर गया। यह तुम्हें भोगने के लिए निर्भागी था। किसी ने ठीक ही कहा है
निः स्वः किं लभते निधिम् । सत्त्वहीन को क्या निधि मिलती है?
इतने सारे राजाओं के बीच तुम्हें जो पसन्द हो, उसको आत्मरूचि के द्वारा चुन लो। उसने भी कहा-कई जन्मों में मैंने अनेक वरों का वरण किया है इस वर के मर जाने से अन्य का वरण करके मैं अपनी आत्मा में लांछन नहीं लगाऊँगी। तुम जैसे परस्त्री की आसक्ति में रंजित रहनेवाले असात्त्विक नपुंसक कायरों को मैं जन्मान्तर में भी वरण नहीं करूंगी। उन राजाओं ने कहा-यह तुम्हारा वर ही कायर है, जो युद्ध मात्र का श्रवण करते ही भय से हृदयाघात को प्राप्त हुआ। तब उनके वचनों को सुनकर क्रोध में उद्धत होकर नाचते हए अमरचन्द्र के मित्र कुरुचन्द्र ने कहा-हे राजाओं ऐसा मत कहो। यह कभी स्वप्न में भी भयभीत नहीं होता। भय की तो इसके साथ दुश्मनी है। फिर वह इसमें कैसे संभव हो सकता है? इसके पूर्वज भी केवल मात्र सात्त्विक दलों से निर्मित के समान कभी भी, कहीं भी, किसी से भी नहीं डरते थे। इसके पूर्वजों का सत्त्व जग जाहिर है, अतः शीघ्र ही अमृत जल की बूदों को पीने के समान मरा हआ भी यह जी जायगा।
तब उन राजाओं ने कहा-अगर ऐसा ही है। सत्त्व की स्फूर्ति इसमें है, तो हे शत्रु! तुम अपने मित्र को जीवित क्यों नहीं करते? उसने कहा-आपलोगों के देखते ही देखते यह क्षणभर में जीवित हो जायगा। इसमें कोई संशय नहीं है। क्योंकि
न हन्त्यर्कोऽपि किं तमः । क्या सूर्य तम का हरण नहीं करता? मन मात्र से भी अगर इसके पूर्वज न डरे हो, तो उनके सत्त्व से यह मरा हुआ भी जी जाय। उसके इतना बोलते ही सुरसुन्दर नन्दन वह कुमार तत्क्षण उठकर खड़ा हो गया। सत्त्व से क्या नहीं होता! तब श्रीषेण नगर में कुमार की सेना ने वर्धापन महोत्सव किया। जयश्री ने भी परम आनन्द संपदा को धारण
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