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शिवकुमार की कथा
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सम्यक्त्व प्रकरणम्
उसके इस प्रकार समझाये जाने पर भी मुनि ने उससे कहा- ऐसा ही होगा। फिर भी एक बार नागिला को देखकर उसकी आज्ञा से चला जाऊँगा ।
तब उसने कहा-हे भद्र! देखो ! मैं ही नागिला हूँ। मेरे रूप, लावण्य व यौवन को जरा रूपी निशाचरी ने ग्रस लिया है। हे मुनि! मुझे देखते हुए संसार की असारता को जानो। मैं उस समय कैसी थी और अब कैसी हूँ। भवदेव ने लज्जित होते हुए विचार किया- अहो ! यह धन्य है ! कृतार्थ है ! और मैं कितना अभागा ! अकृत्यवान हूँ। इस प्रकार विचार करते हुए उसके मन में महा-वैराग्य भावना उद्भूत हुई।
तभी उस ब्राह्मणी के पुत्र ने ब्राह्मणी से कहा- माँ! मुझे उल्टी होने वाली है, अतः नीचे पात्र रख दो । अमृत से भी ज्यादा मनोज्ञ खीर व्यर्थ न जाय । अतः पात्र में वमन की हुई खीर को मैं वापस खा लूँगा। क्योंकि मुझे यह अपने जीवन से भी दुर्लभ है । ब्राह्मणी ने कहा- हे वत्स! उलटी में निकला हुआ भोजन जुगुप्सित होता है। क्योंकिवान्ताशिनो हि जायन्ते कुक्कुरा एव नापराः ।
वमन किया हुआ भोजन कुत्तों के लिए ही होता है, अन्य के लिए नहीं ।
यह सुनकर भवदेव विचार में पड़ गया कि जो विवेक इस ब्राह्मणी में है, वह मुझमें नहीं है। मेरे द्वारा पूर्व में वमन किये हुए विषय की मैं फिर इच्छा क्यों करूँ? ठीक ही कहा गया है कि
सत्यसन्धा हि साधवः ।
साधु सत्य-प्रतिज्ञ होते हैं।
अतः भवदेव मुनि ने संवेग की लहरों से प्रक्षालित विमल मनवाले होकर विषयों को अशुचि मानकर तत्त्वतः उन्हें सदा के लिए छोड़ दिया। फिर नागिला से कहा- हे भद्रे ! तुमने मुझे मार्ग दिखाया है। जैसे - महावत हाथी को तथा मन्त्री राजा को सलाह देता है, उसे चलाता है, वैसे ही तुमने मुझे दिशा-दर्शन कराया है । अतः तुम मेरी गुरु हो । मैं तुम्हारे सामने अपने सभी पापों का मिथ्या दुष्कृत देता हूँ। उस नागिला ने कहा- आप गुरु के पास जाकर आलोचना करके व्रत का पालन करें। मैं भी अब साध्वियों की सन्निधि में व्रत ग्रहण करुँगी । सत्य ही कहा जाता है कि
यन्नार्यः पतिमार्गानुगा इति ।
नारियाँ पति के मार्ग की अनुगामी होती है।
तब भवदेव ने जिन बिम्ब को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके गुरु के पास जाकर संपूर्ण दुष्कृत्य की आलोचना | चारित्र की सम्यग् अनुपालना करके आयु पूर्ण होने पर सौधर्म देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए।
इधर भवदत्त का जीव स्वर्ग से च्युत होकर वृक्ष से पके हुए फल की तरह काल के परिणाम से महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नगरी में षट् खण्ड को जीतने की इच्छावाले विशाल सेना के महाप चक्रवर्ती वज्रदत्त की सर्वोत्तम यश से पूर्ण देवी यशोधरा की कुक्षि में सरोवर में राजहंस की तरह अवतरित हुआ । उसकी सौहार्द से हर्ष पूर्वक शीघ्र ही उसने भूतल पर जन्म लिया। एक बार देवी को गर्भ-दोहद के रूप में समुद्र क्रीड़ा करने की इच्छा उत्पन्न हुई। तब राजा ने समुद्र के समान विशाल सीता नदी में यह दोहद पूर्ण कराया । गर्भ के दिवस पूर्ण होने पर महादेवी यशोधरा ने विद्या के समान विमल यशवाले पुत्र को जन्म दिया। राजा ने उसका जन्म महोत्सव करवाकर संपूर्ण लोगों को उस-उस विधि-विधान से संतुष्ट किया। पुण्य रूपी वृक्ष के मूल की तरह दोहद होने से उस शिशु का नाम उत्सवपूर्वक सागरदत्त रखा गया। स्वीकृत-धर्म की परिपालना सम्यग्
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