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सम्यक्त्व प्रकरणम्
सागरचंद्र की कथा
विराधना नहीं की। अतः तुम्हारे घर में आकाश मार्ग से यह सारी समृद्धि रूप लक्ष्मी आयी।
यह सब सुनकर प्रबुद्ध होते हुए श्रेष्ठि समृद्धिदत्त को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने मुनि के पास व्रत ग्रहण किया। धर्म की महिमा को उस प्रकार से सुनकर के श्रेष्ठि-पुत्री ने भी पति के मार्ग का अनुसरण किया।
इस प्रकार अनर्थदण्ड नामक गुणव्रत की आराधना और विराधना के फल को सुनकर भव्य जीवों द्वारा इस प्रकार के कार्य की आराधना में यत्न करना चाहिए।
अतः अनर्थदण्ड विरति व्रत मे समृद्धिदत्त व श्रीपति की कथा समाप्त हुई। अब सामायिक व्रत के उदाहरण को कहते हैं
|| सागरचंद्र की कथा || जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में नीतिमान मंत्री की तरह सौराष्ट्र नामक देश था, जो समुद्र से सदैव अलंकृत था। वहाँ श्रेष्ठ द्वारावती नगरी थी। संपूर्ण नगरी स्वर्णमयी होने से स्वर्णपर्वत की बहन जैसी लगती थी। वहाँ यदुवंश के शिरोमणि कृष्ण नामक राजा थे, जो अर्द्ध भरत के अधिपति नौवें वासुदेव थे। उनके भ्राता बलदेव उम्र व बल दोनों में उनसे बड़े थे। उनका सदाचार युक्त विनयी निषध नामका पुत्र था। उसके सागरचन्द्र नामका पुत्र हुआ, जो सागर के चन्द्रमा की तरह था। जगत के नेत्रों में कमलाकर की तरह बोध पैदा करता था। संपूर्ण कलाओं का ज्ञान करके क्रमशः यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। उसकी रूप संपदा को देखकर देवताओं ने अपना रूप-मद छोड़ दिया। चकवे के लिए सूर्य की तरह तथा चकोर के लिए चन्द्रमा की तरह वह शाम्बादि कुमारों को अत्यन्त वल्लभ था।
इधर उद्दाम गजेन्द्र आदि चतुरंगिणी सेना धन से युक्त जगत जयी धनसेन नामका माण्डलिक राजा था। कमल के समान लाल हाथों व पैरो से युक्त, कमल के समान मुखवाली लक्ष्मी की छोटी बहन के समान कमलामेला नाम की उसकी पुत्री थी। यौवन वय प्राप्त होने पर उसको उग्रसेन राजा के पुत्र नभःसेनकुमार को उसके पिता द्वारा दे दी गयी। एक बार नारदजी बड़ी छत्री, माला, कमण्डल, आसन आदि धारण किये हुए उसके सदन में आये। सार्वभोम श्री की प्राप्ति होने पर सुरापान से मदहोश की तरह वह परितोष के पराधीन था, अतः नारद जी का सत्कार नहीं किया। तब नारद ऋषि क्रुद्ध होकर शीघ्र ही वहाँ से उठकर उसके घर से आकाशमार्ग द्वारा सागरचन्द्र के घर गये। अभ्युत्थान, प्रणाम तथा अपने सिंहासन के अर्द्ध-आसन को प्रदान करते हुए भक्तिपर्वक उसने नारद का सत्कार करके वत्सल-भावपर्वक उनकी कुशलता पछी। फिर पूछा-भगवान! विश्व भ्रमण करते हुए क्या कुछ अद्भूत देखा? ऋषि ने कहा-हाँ! देखा। तब सागरदत्त ने पूछा-क्या देखा? नारद ऋषि ने कहा-हे कुमार! धनसेन राजा की पुत्री कमलामेला को देखा। उसका मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्र की तरह है। समुद्री तट पर रहे हुए प्रवाल रत्न वृक्ष की तरह जिसके अधर हैं। वह हंसपदी लता के समान तिरछे कटाक्ष से युक्त है। काम रूपी क्रीड़ा की वापी में वह मछली की तरह उछलती रहती है। सहज लाल, भाग्यशाली चरणों से कमलिनी के समान, और कर रूपी पल्लवों से चलती हुई लता ही लगती है।
यह सब सुनकर सागरचन्द्र काम बाण से आहत हुआ। उसने पूछा-क्या वह कन्या है? तब नारद ऋषि ने कहा-वह उग्रसेन के पुत्र को दी हुई है। सागर ने पूछा-तो फिर मेरा भावी योग उसके साथ कैसे होगा? मैं क्या जानूं-इस प्रकार कहकर नारदजी आकाश में उड़ गये। वहाँ से वे कमलामेला के घर को प्राप्त हुए। उसने भी सत्कार करके अंजलिपूर्वक पूछा-आपने क्या आश्चर्य देखा? नारदजी ससंभ्रम होते हुए उसको आतुरता से कहा-हे सुन्दरी! इस समय मैंने नगरी में स्वरूपवानों के शिरोमणि सागरचन्द्र को देखा और दूसरा आश्चर्य नभःसेन के रूप में कुरूपों के शिरोमणि को देखा। यह सुनकर वह नभःसेन से विरक्त होती हुई सागरचन्द्र में रंजित हो गयी। क्योंकि
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