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सम्यक्त्व प्रकरणम्
चण्डकौशिक की कथा अतः मैंने उसे नहीं भोगा। मनुष्यों के लिए परस्त्रीगमन दोनों लोक में अनर्थकारी है।
विद्यासिद्ध ने कहा-मित्र! यह सभी विमान आकर्षण आदि कार्य तुम्हारे लिए मेरे द्वारा किया गया उपक्रम था। अन्यथा इस तीर्थ तक तो मैं भी पैदल चलकर आ सकता था, ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता था, अगर तुम्हारे मनोभाव मुझे पहले पता चल जाते। इस प्रकार बातें करते हुए, पूर्ववत् भोजन करते हुए चलते हुए मठादि में सोते हुए वे दोनों वाराणसी को प्राप्त हुए। तीर्थ को देखकर गंगा में स्नान करने के लिए जाते हुए विद्यासिद्ध ने अपने हाथ में बाँधा हुआ रक्षाङ्गद खोलकर गोभद्र को दिया। फिर गंगा में प्रवेश करते हए क्षण भर के लिए तो वह दिखा। बाद में मंत्र से गायब हुए की तरह वह चिरकाल तक नहीं दिखा। गोभद्र ने संभ्रम होते हुए अपने उस उद्धारक को गंगा के चारों ओर खोजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिला। तब अत्यन्त दुःखी होकर चिरकाल तक मित्र के लिए शोक करता हुआ प्रार्थनाओं का स्मरण करते हुए वह जालन्धरपुर की ओर चला। अद्भूत द्रव्य लाभ तथा मित्र प्राप्ति के शकुन जानकर पूछता-पूछता वह चन्द्रलेखा के सदन तक पहुँचा। द्वार खुलवाने के लिए बाहर से आवाज दी। विद्यासिद्ध भी अन्दर से उसकी आवाज सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। अन्दर से ही बोला-आओं आओं! भाई! तुमने यहाँ आकर मेरे लिए बड़ा अच्छा किया। विद्यासिद्ध के शब्दों को सुनकर गोभद्र भी अत्यन्त विस्मित हुआ। कहाँ हो मित्र! मैं यहाँ हूँ- इस प्रकार चकित होते हुए उसने प्रवेश किया। कठिन श्रृंखलाओं से गाद रूप से बाँधे हुए विद्यासिद्ध को देखा। देखते ही उसकी आँखें आँसूओं से पूर्ण हो गयी। उसने विद्यासिद्ध को पूछा-तीनों जगत् पर विजय प्राप्त करने वाले मेरे मित्र की इस प्रकार की दुर्दशा कैसे हुई? विद्यासिद्ध ने कहा-तुम शोक मनाना बन्द करो। सबसे पहले मेरा रक्षांगद मेरी भूजा पर बाँधो। उसके रक्षांगद को बाँधने के साथ ही गरुड़ अस्त्र से नाग-पाश टूटने के समान उसके बंधन तड़ा-तड़ टूट गये। उसको अपने स्वरूप में स्थित देखकर द्विज ने विद्यासिद्ध को विस्मित होकर कहा-मित्र! विचित्र लीला है, कहाँ तो तुम गंगा में डूबे, और कहाँ से यहाँ आ गये। कैसे इन साँकलों से मुक्त हुए। मुझे यह सारा कौतुक बताओ। विद्यासिद्ध ने कहा-भद्र! विमान में रही हुई चन्द्रकान्ता योगिनी को मैंने जबरदस्ती आकर्षित करके उसके साथ भोग भोगा। उसके वैर से क्रोधित हुई उसकी भगिनी चन्द्रलेखा ने मुझे रक्षांगद से रहित गंगाजल में प्राणायाम में स्थित देखा। अतः वहाँ से उठाकर यहाँ लाकर मुझे निबिड़ बन्धनों में बाँध दिया। ये देवियाँ अपने सभी वैरियों पर छल से ही प्रहार करती हैं। इस समय तुम्हारे द्वारा लाया हुआ यह रक्षाङ्गद मुझे यम के मुँह से खींच लाया। मानो! मेरा पुनर्जन्म हुआ है। तुम भी अपनी आत्मकथा कहो और वांछित वरदान का वरण करो। उसके इस प्रकार कहने पर गोभद्र ने कहा-मैं समय का वरदान माँगता हूँ।
तभी वे योगिनियाँ अपनी विद्या सिद्ध करके श्री पर्वत से विमान द्वारा आकाश मार्ग से अपने भवन में ऊपर आयी। उन्हें देखकर गोभद्र ने उसको पूछा-ये दोनों एक साथ कैसे? उसने भी कहा-जैसा दुश्मनों के साथ किया जाता है, वैसा ही व्यवहार करूँगा। जैसे-अंधकार को नष्ट किये बिना सूर्य प्रकट नही होता। जल को प्राप्त किये बिना धूलि कीचड़ का रूप धारण नहीं करती।
गोभद्र ने कहा-यही व्यवहार है। फिर भी क्रोध मत करो। यह तो वैर को बढ़ाने वाला रसायन है। इस प्रकार कहकर उसको नियन्त्रित करके वह भवन के ऊपरी खण्ड में गया। चन्द्रलेखा ने उसको देखकर आश्चर्यपूर्वक स्वागत किया। फिर कहा-भाई! तुमने मेरा शील खण्डित नहीं किया। अतः आज शुभाशय से मेरी विद्या सिद्ध हो गयी। गंगाजल से मछली की तरह रक्षांगद से विहीन वह दुर्दम विद्यासिद्ध भी यहाँ बाँधकर लाया गया है। मेरी बहन कृष्ण चतुर्दशी को वर्धापनपूर्वक इसकी बलि चण्डिका देवी को चढ़ायगी। इसी अवसर पर तुम भी आ गये। तुम्हारे आ जाने से आज महा-उत्साह की तरह उत्सव होगा।
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