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चण्डकौशिक की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् भी दष्कर है। अतः मैं तम्हें सर्वकामित सिद्धि दूँगी। गोभद्र ने कहा-वह कैसे? तो उसने कहा
यहाँ जालन्धर नाम का योगीनी पीढ़ का पुर है। अणिमादि सिद्धियों से युक्त वहाँ योगिनियाँ रहती हैं। वशीकरण, आकृष्टीकरण, अदृश्यीकरण, खेचरीकरण, दूरदर्शिकरण आदि विद्याओं द्वारा वे क्रीड़ा करती रहती हैं। निरन्तर छलना के भय से यम भी जिन से शंकित होता है, विश्व पर आक्रमण करने में समर्थ बुढ़ापा भी उनके समीप नहीं आत। सर्वदा वे नित्य-युवा रहती हैं। पत्थर पर उत्कीर्ण पुरातन रूप की लालित्य, मनोरमत्व आदि प्रशस्ति के समान वे अपने रूप को प्रकाशित करती हैं। उसी पीढ़ में रहनेवाली मैं चन्द्रलेखा योगिनी हूँ। जो दूसरी चन्द्रकान्ता है, वह मेरी बड़ी बहन है। यह योगिनियों के मध्य में चतुर्थ स्थान पर पूजनीय है। रूप संपदा युक्त यह देवी अनेक महाविद्याओं में सिद्ध हैं।
गोभद्र विस्मित होता हुआ बोला-यदि ऐसा है, तो कैसे इस प्रकार आराधना होती है। उसने कहा-मैं आगे बताती हूँ। सुनो।
यह कामरूप अधिवासी डमरसिंह का पुत्र ईशानचन्द्र है, जो साहस की महानिधि है। अनेक विद्याओं को सिद्ध कर लेने पर भी सर्वकामित विद्या की सिद्धि के लिए कालायिनी देवी के सामने एक लाख बिल्व की आहूति दी। फिर भी देवी के प्रसन्न न होने पर उसके संतोष के लिए, अति साहसपूर्वक अपना शिर छेदन करने का उपक्रम किया। तब सर्वकामित दायक देवी स्वयं प्रसन्न हो गयी और उसके हाथ में रक्षाङ्गद बाँधकर अदृश्य हो गयी। विश्व का साम्राज्य मिलने के समान अतिगर्वित होता हुआ सभी जगह अस्खलित अहंकारी यह इन्द्र की तरह निरन्तर घूमता है। दर्प से राजाओं को ग्वालों की तरह मानता है। अपने चित्त के अन्तर्बल के कारण यमराज पर भी हंसता है। अंतःपुरों में भी अपने घर की तरह स्वाधीनतापूर्वक क्रीड़ा करता है। श्रृंखला से बंधे हुए के समान यह दूर से ही वस्तुओं को खींच लेता है। रक्षाङ्गद के प्रभाव से यह किसी के द्वारा जीता नहीं जाता, पर चक्रधारी चक्रवर्ती की तरह सभी पर विजय प्राप्त करता है। किसी दिन घूमते हुए यह जालन्धरपुर में आ गया। इसने दिव्यरूप धारिणी मेरी बहन चन्द्रकान्ता को देखा। तब धर्म-कर्म से पराङ्मुख इसने कितने ही दिनों तक स्वेच्छाचारी होकर जबरदस्ती रमण किया, फिर कहीं चला गया।
तब बहुत काल तक हमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए सर्वकामित विद्या की साधना के लिए आज श्री पर्वत पर जाने के लिए दिव्य विमान पर आरुद होते हुए हमें खींचकर यहाँ ले आया। हम भय के कारण वही करते हैं, जो यह कहता है। यह सब सुनकर ब्राह्मण के मन में अत्यन्त कुतूहल पैदा हुआ कि इस प्रकार की योगिनियाँ भी कैसे इस विद्यासिद्ध के वश में रहती है। अथवा क्या आश्चर्य है! बहुरत्ना वसुन्धरा! इस जगत में गुरु के भी गुरु होते ही हैं।
चन्द्रलेखा ने पुनः कहा-अगर यह मेरी बहन का शील खण्डित न करे, तो अभी भी वह विद्या स्वयं सिद्ध हो जायगी। हे भाई! तुम तो अक्षत शील वाले हो, तुम्हें सात रात्रि में ही यह विद्या सिद्ध हो जायगी। फिर तुम्हें यह विद्या क्यों नहीं दूं? तब भ्राता से अभ्यर्थना की कि फिर कभी कदाचित् हमें अपना आतिथ्य देकर अनुग्रहित करना। इस प्रकार सगे भाई-बहिनों की तरह बातें करते हुए उन दोनों के बीच तीसरा कोई था, तो वह रात्रि थी, जो बीत गयी।
विद्यासिद्ध ने पुकारा-हे मित्र! चलो, अब जाया जाय। उसने कहा-अच्छा! इस प्रकार कहता हुआ विद्यासिद्ध के पास गया। विद्यासिद्ध ने स्त्री सहित उस विमान को छोड़कर आगे जाने के लिए चलते हुए द्विज को पूछा-रात्रि में जिस दिव्य स्त्री को मैंने तुम्हारे पास भेजा, तुमने उसके साथ भार्या-भाव से भोग भोगा या नहीं? गोभद्र ने कहाहे मित्र! राजा के आदेश की तरह तुम्हारे आदेश का कौन प्राणी उल्लंघन कर सकता है। पर मैं परस्त्री से विरत हूँ।
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