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सम्यक्त्व प्रकरणम्
शिवकुमार की कथा
में अपना मुँह डालकर वह बैठ गया । प्रभु ने उसे सम्पूर्ण धर्मविधि की अनुमति देकर अनुकम्पापूर्वक उसे वहीं उसी रूप में रहने दिया । महावीर स्वामी को यथावस्थित अक्षत देखकर, गोपालक, वत्स - पालक आदि विस्मित होकर उसके पास गये। वृक्षादि की डाल बिल में घुसेड़कर, पत्थर आदि से प्रहारकर, उस सर्प को उत्तेजित करने के लिए उन्होंने उत्तेजना दिलाने वाली बहुत सारी क्रियायें कीं। फिर भी विचलित नहीं होने पर विश्वास करके उसके पास जाकर साँप के फन को लाठियों से रस्सी की तरह हिलाया । तब उन गोपालक आदि लोगों ने कहाबादलों से दावानल के शांत होने की तरह देवार्य महावीर ने इस सर्प को शांत कर दिया है। ऐसा कहकर उन सभी ने वीर स्वामी के पास जाकर मुदित होकर उनको नमस्कार किया, स्तुति की और उस सर्प की पूजा की। गोरस आदि बेचने के लिए उस मार्ग से होकर निकलनेवाली ग्वालिनियों ने इकट्ठे होकर सरलता से सम्मानपूर्वक नागराज को गोरस चढ़ाया। उसकी गन्ध से आकृष्ट होकर कर्मों के निगमन द्वार की तरह अनेक छिद्र उसके शरीर में चीटियों ने कर दिये। फिर भी उस नाग ने यही विचार किया कि यह अच्छा ही हो रहा है, क्योंकि मेरे कर्मों का उच्चाटन करने के लिए इस प्रकार की वेदना की जा रही है। इस प्रकार धर्म ध्यान रूपी अमृत का पान करते हुए, निवृत मन वाले उस सर्प ने उस भयंकर आर्ति को पन्द्रह दिनों तक सहन किया। श्री महावीर के सान्निध्य को प्राप्त करने वाला वह चण्डकौशिक सर्प कर्म-शत्रुओं को जीतता हुआ सुखपूर्वक सहस्रार देवलोक में गया।
जिस प्रकार दिशा विरमण व्रत के द्वारा चण्डकौशिक नाम के महासर्प ने देवलोक प्राप्त किया, उसी प्रकार दूसरों को भी अन्यों द्वारा दिशा परिमाण की मर्यादा करके अपर दिशाओं की विरति द्वारा उत्कृष्ट पद से निबद्ध होकर शारीरिक योग के निरोधपूर्वक दिशा विरति अपनानी चाहिए।
इस प्रकार दिशिव्रत की विरति में चण्डकौशिक सर्प की कथा पूर्ण हई | अब भोगोपभोग व्रत की कथा कहते है
|| शिवकुमार की कथा ||
जम्बूद्वीप में वसुवर्तुलपुरी में आयताकार महाविदेह नामक क्षेत्र था। विजयों में अग्रिम पुष्कलावती नामकी विजय में शोक से रहित वीतशोका नाम नगरी थी। न्याय व धर्म के मनोरथ से युक्त पद्मरथ वहाँ का राजा था, वह प्रजावत्सल राजा अपनी प्रजा को सन्तानों की तरह पालता था । पत्र, पुष्प श्रृंगार, छाया व फल सहित वनमाला की तरह वनमाला नामकी रानी उस राजा की वल्लभा थी । निसर्ग सौंदर्य से युक्त रानियों का अंतःपुर-वर्ग होने पर भी लक्ष्मी में विष्णु की तरह वह राजा विशेष रूप से वनमाला में आसक्त था । एक बार रत्नपृथ्वी (रत्नद्वीप) में रत्न की तरह तथा सीप में मोती की तरह वनमाला की कुक्षि में गर्भ का अवतरण हुआ। उस गर्भ के अनुभाव से वह दुर्योध योद्धा की तरह धर्म कर्म में लीन हो गयी। उसका मुख उज्ज्वलता से चमकने लगा। स्वजन आदि में उसका अतीव निर्मल स्नेह भैंस के दही के समान व विशालता युक्त मन वाला हो गया। गुरुजनों के प्रति उसका विनय फल से लदी हुई झुकी हुई शाखा की तरह हुआ तथा दानशीलता में वह कल्पलता के समान हो गयी। शुभ दिन, शुभ समय, शुभ मुहूर्त में कमलिनी के समान उस राजा की प्रिया ने कमल के समन पुत्र रत्न का प्रसव किया। राजा ने महा-महोत्स्व से जन्मोत्सव को मनाया। स्वामी के संतोष से सभी लोग भी प्रसन्न व संतुष्ट हुए। उसके गर्भ में आने पर राज्य में हुआ भयंकर अकल्याण शिव रूप में परिगत हो गया, अतः उसका नाम शिवकुमार रखा गया। कुशल भृत्यों तथा धात्री आदि के द्वारा पाला जाता हुआ । शिवकुमार लोगों के मनोरथों के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होने लगा। आठ वर्ष की उम्र में उसे कलाचार्यों के पास पढ़ने के लिए भेजा गया। संपूर्ण कलाओं को ग्रहण करता हुआ वह पूर्ण चन्द्रमा की तरह कलाकोश बन गया । मद के अभिमुख हाथी की तरह तारुण्य को प्राप्त होने
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