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चण्डकौशिक की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
को प्राप्त गयी। उस पर दुःसह वज्रपात हुआ । दुःखित होते हुए उसने विचार किया - जिस के लिए कष्टपूर्वक परदेश गया, इतना धन अर्जित किया, वही प्राणप्रिया मुझे छोड़कर चली गयी। मनुष्य प्रमुदित होता हुआ। कुछ अन्य सोचता है और दुर्द्धर वैरी की तरह दैव क्षण भर में ही अनिष्ट कर देता है । अतः मनुष्य का ऐश्वर्य सुख दुःखादि उसके वश में नहीं है । हे प्रभु! दैव ही अपनी इच्छा से सब कुछ करता है । चंचल बन्दर की तरह मनुष्य निरर्थक ही कूदता है और अनर्थों में पड़ता हुआ किंकर देव की योनियों को प्राप्त करता है । इस प्रकार चिन्ता युक्त, अन्तःकरण की शरण लेता हुआ अपने शून्य घर में वह द्विज शून्यमना होकर बैठ गया ।
तभी वहाँ उसके भावी सुकृत्यों से प्रेरित की तरह धर्मघोष नाम के मुनि का पदार्पण हुआ। सभी लोग उनके पास वन्दना करने के लिए आये । वह गोभद्र भी वहाँ जाकर वन्दना करके उनके सामने बैठ गया । उनके पास धर्म सुनकर प्रतिबद्ध होते हुए गोभद्र ने सात क्षेत्रो में संपूर्ण धन व्यय करके व्रत ग्रहण कर लिया। वे क्रम अध्ययन करते हुए गीतार्थ मुनिपुंगव बन गये । कर्म वन का नाश करने की इच्छा से उग्र तपस्या करने लगे ।
एक बार विहार करते हुए मासखमण का पारणा करने के लिए जाते हुए उनके पाँवों के नीचे एक मेंढकी आ गयी। तब उनके अनुगामी क्षुल्लक साधु ने उन्हें दिखाते हुए कहा- हे क्षपक ! आप द्वारा यह क्षुद्र मेंढकी मर गयी है । उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा- हे दुष्ट ! दूसरों द्वारा मारी गयी मेंढकी मुझे दिखाकर कहता है कि मैंने मारी है । क्षुल्लक मुनि ने उनको देखकर सोचा कि अभी भूख से पीड़ित है, अतः क्रोध में है। समय आने पर इन्हें याद दिलाऊँगा - इस प्रकार विचारकर वह मौन हो गया। आवश्यक में भी वे बिना आलोचना किये बैठ गये। तब क्षुल्लक ने याद दिलाया - हे क्षपक ! आपने मेंढकी की आलोचना नहीं की। क्रोध ने उनके विवेक नयनों को आच्छादित कर दिया। पाटे को उठाकर क्षुल्लक को मारूँगा - इस प्रकार वेग से दौड़े। दौड़ते हुए स्तम्भ से टकरा गये और कपाल फूट जाने से उनकी मृत्यु हो गयी। चारित्र की विराधना करने से ज्योतिष्क में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यवकर कनकखल में ५०० शिष्यों के कुलपति के कोशिक नाम के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। कौशिक कुल में उत्पन्न तथा चण्ड स्वभाव के कारण वह चण्डकोशिक नाम से प्रख्यात हुआ। उस कुलपति के परलोक चले जाने पर वह चण्डकोशिक कुलपति बना । क्योंकि
सुनोर्न्याय्यं खलु पितुः पदम् ।
पिता के पद पर पुत्र को स्थापित करना निश्चित ही न्यायोचित है।
अपने वन खण्ड में अत्यधिक मूच्छित होते हुए वह अपने ही तापस जनो को वहाँ के पुष्प, फल कन्द आदि नहीं लेने देता था। अगर कोई कदाचित् पत्ते आदि भी ग्रहण कर लेता, तो वह क्रुद्ध होकर उसे लाठी, पत्थर व कुठार आदि के द्वारा ताड़ित करता था । तब फलादि की प्राप्ति नहीं होने से तापस अन्यत्र चले गये। कहा भी हैस्वार्थसिद्धि बिना यन्न कोऽपि कस्यापि वल्लभः ।
स्वार्थ सिद्धि के बिना कोई भी किसी को भी प्रिय नहीं होता ।
गुरु
के समान ही गुरुपुत्र को भी मानना चाहिए - इस प्रकार माननेवाले तापसों ने वचन से भी उसकी प्रतिकूलता के लिए कुछ नही कहा । वह अकेला ही असहिष्णु शेर की तरह चारों ओर घूमता हुआ सर्वदा उस वनखण्ड की रक्षा के लिए वहाँ रह गया । एक दिन उसने वृत्ति के लिए तापसों के आने जाने के मार्ग को भी रोकने के लिए वनखण्ड की आसक्ति से काँटों की बाड़ से बन्द कर दिया। जब राजपुत्रों ने वहाँ आकर यह जाना तो वे आग बबूला हो गये। पहले भी फल आदि लेने की मनाही से वे क्रोधित थे । अतः वनखण्ड में जाकर उस वन को झंझावात से उखड़े हुए की तरह उखाड़कर उस शून्य वन से स्वेच्छापूर्वक चोर की तरह सारे फल ले लिये। कुछ ग्वालों ने यह देखा तो जाकर बोले- चण्डकौशिक ! देखो ! देखो ! तुम्हारे वनखण्ड को अनाथ की तरह जानकर कोई
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