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चण्डकौशिक की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् ऋषि वहाँ गये। पक्षी की तरह वृक्ष पर रहे हुए एक चोर ने उन्हें आते हुए देखा। उसने सोचा यह श्रमण हमको पराभूत कर देगा अतः क्रोधपूर्वक उनको पकड़कर अपने सेनानी के पास ले गया। सेनानी ने भी क्रीड़ा-बुद्धि द्वारा उन्हें ज्ञानी पुंगव जानकर भी कहा-हे! हो! नट की तरह नाट्य लीला द्वारा हमें खुश कर। कपिल ने भी कहा-वाद्य के अभाव में नाट्य लीला कैसे हो सकती है? क्या अग्नि के बिना धुआँ कहीं भी दिखायी देता है? तब सभी चोरों ने ताली बजाना शुरु किया। कपिल भी जोर-जोर से पद्य गा गाकर नाचन
किया। कपिल भी जोर-जोर से पद्य गा गाकर नाचने लगा। इस अशाश्वत संसार में दःख की प्रचुरता के अलावा और क्या है? अतः कुछ ऐसा कर्म करना चाहिए, जिससे हमें दुर्गति में न जाना पड़े। इस प्रकार के उसके मनोहर स्वर को सुनकर वे पाँचसौ चोर निश्चल होते हुए अन्दर से जागृत बनें। यह सब सुनकर वे चोर कोई कैसे तो कोई कैसे प्रतिबुद्ध हुए। कपिल ऋषि ने उन सभी को प्रव्रज्या ग्रहण करवायी। चिर काल तक विहार करके आयु पूर्ण होने पर सिद्धि को प्राप्त हुए।
इस प्रकार जो परिग्रह का सर्व रूप से त्याग करता है, वह कपिल के समान लोभ विमुक्त होता हुआ सिद्धि को प्राप्त करता है। जो त्याग बुद्धि द्वारा जो भी लब्ध है, उसको परिमित करता है, वह भी क्रमशः परम विमुक्ति को प्राप्त होता है।
इस प्रकार परिग्रह परिमाण की विरति के व्रत में कपिल की कथा संपन्न हुई। अब दिशाव्रतसंविधानक व्रत पर चण्डकौशिक की कथा को कहते है
|| चण्डकौशिक की कथा || इसी प्रथम द्वीप में भरत क्षेत्र के मध्य स्वयं लक्ष्मी की तरह स्थापित कौशेय नामका सन्निवेश था। वहाँ पर संपूर्ण देश की भाषाओं को जाननेवाला कोविद, ब्राह्मणों का धोरी गोभद्र नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी अद्भूत वाग्लब्धि तथा अति प्रगल्भित बुद्धि होने पर भी एकमात्र लक्ष्मी के बिना लोग उसमें अनुराग नहीं रखते थे। ऐसा कोई गुण नहीं था, जो कि उसमें न हो। बस, नहीं थी तो वह वस्तु, जिसे खाकर वह घर से निकल सके। इतना गरीब होते हुए भी अदीन मन वाला होकर अपनी निष्परिग्रहता को ही धन मानता हुआ संतुष्ट होकर सदैव चिन्तन किया करता था कि अहो! इस लक्ष्मी ने जिन-जिन पुरुषों को स्वीकार किया है, वे इस स्त्री के स्वामी होकर किसकिस से पराजित नहीं हुए। अपने ही समान गोत्रवालों द्वारा पकड़े जाते हैं, भिखारियों द्वारा खोजे जाते हैं। भय से उद्भ्रान्त वे कहीं भी स्वच्छन्द विचरण नहीं कर सकते। पथ्य-भोजन करने के बाद भी आधियों से विहित व्याधियों द्वारा वे पीड़ित होते हैं। मैं तो अत्यन्त गरीबी का सिरमौर नरेन्द्र हूँ। मैं किसी के भी द्वारा अभिभूत हुए बिना, बिना किसी भय के संचरण कर सकता हूँ। गोभद्र इस प्रकार विचार करते हुए वर्ष दर वर्ष व्यतीत कर रहा था।
एक दिन उसकी पत्नी शिवभद्रा ने उसको कहा-हे कान्त! मैं गर्भवती हूँ। लेकिन आप तो निश्चिन्त है। क्या आप नहीं जानते कि गर्भवती स्त्री को भविष्य में घी आदि की जरूरत पड़ेगी। अतः उसके लिए आप थोड़ा अर्थोपाजन क्यों नहीं करते? अनागत का चिन्तन करने वाला ही पुरुष सुख को प्राप्त करता है।
इस प्रकार अपनी पत्नी के कहने पर उसके शरीर में शीत-लहरें व्याप्त हो गयी। शीघ्र ही उसके मन में चिन्ता का महासागर कल्लोलें करने लगा। तब सन्तोष को भूलकर वह अपनी पत्नी के निमित्त अर्थ लिप्सा से सैकड़ो उपाय पत्नी के सामने कहे। उसकी पत्नी ने कहा-क्यों पागल सी बातें करते हो? तुम्हारे द्वारा याचना करने पर एक ही धनी तुम्हें इतना धन देगा कि हमारी पूर्ति हो जायगी, क्योंकि तुम्हारे जैसा अर्थी ही दुर्लभ है। गोभद्र ने कहाकानों को भी दुःख पहुँचाने वाली ऐसी भाषा मत बोलो। क्योंकि मैं मर जाऊँगा, पर याचना नहीं करूंगा। अगर कोई दूसरा उपाय हो ओर कठिनता से साध्य भी हो, तो बोलो। पति के महासत्त्व से खुश होती हुई वह बोली-हे प्रिय!
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