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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा सेवा, भक्ति, पूजा की। श्रावकों के बीच प्रतिदिन अतुल वात्सल्य भाव को धारण किया। सभी जगह उसने स्वयं अरिहन्त का शासन मान्य किया।
भैमी के पुष्कल नामका पुत्र हुआ। उसने संपूर्ण कलाएँ पढी। राज्यश्री को वरण करने की उचित यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। इस प्रकार नल ने एक हजार वर्ष तक साम्राज्य भोगा। एक दिन उसके पिता देव ने उसे प्रतिबोधित किया-वत्स! क्या तुम वही राजा हो, जिसमें विवेकरूपी महान धन है। यही एक वह विषय है जिससे तुम देखते ही देखते मोहित नहीं होते। मैंने स्वीकार किया था कि तुम्हारे व्रत का अवसर आने पर आवेदन करूँगा। यह वही अवसर है, अब तुम्हें चारित्र लेना चाहिए। इस प्रकार कहकर अवधिज्ञानी वह देव चला गया।
___ उसी समय अवधिज्ञानी, जिनसेन नाम के गुरु आये। तब नल ने भैमी के साथ जाकर भक्तिपूर्वक गुरु को प्रणाम किया। देशना सुनी और प्रसंगोपात राजा ने उनको पूछा-भगवन्! मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा कर्म किया, जिससे कि इस प्रकार राज्य पाकर भी हार दिया और पुनः पा लिया?
गुरु ने कहा-सुनो! अष्टापद पर्वतराज रूपी महातीर्थ की सन्निधि में जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र है। वहाँ अनिष्ट को नहीं देखनेवाला संगर नगर है। वहाँ मम्मण नाम का राजा था। उसकी देवी का नाम वीरमती था। एक दिन उस पार्द्धि राजा ने अपनी पत्नी के साथ पुर से बाहर जाते हुए सार्थ के मध्य में रहे हुए एक साधु को देखा। उस क्षुद्र आशयवाले राजा ने यूथ से कपि की तरह उस सार्थ से मुनि को ले लिया, तथा खेल खेलने के लिए प्रवृत्त हुआ। अपनी पत्नी सहित राजा ने उन क्षमाश्रमण पुंगव को दुरात्मना रूप से बारह घड़ी तक खेदित किया। बाद में उनकी करुणा जागी, तो दम्पती ने उनसे पूछा-आप यहाँ किस स्थान से आये और कहाँ जाना चाहते थे। उन मुनि ने कहाहम रोहीतक नाम के स्थान से प्रस्थित हुए। अष्टापद गिरि तीर्थ के वन्दन की इच्छा से जाना चाहते थे। पर तुम दोनों ने मुझे सार्थ से अलग कर दिया। इसलिए मेरी यात्रा नहीं हुई। क्योंकि
श्रेयो हि बहुविघ्नकम्। श्रेय कार्य विघ्नों से भरा होता है।
साधु के शब्द-शब्द को मन्त्र के समान सुनते हुए उन दोनों का विष से युक्त क्रोध विगलित हुआ। तब उनकी आर्द्र दृष्टि को देखकर उन दोनों की योग्यता जानकर दया की प्रधानतावाला विचक्षण आर्य धर्म कहा। उस दम्पति ने कभी नहीं सुने हुए उस श्रेष्ठ धर्म को सुनकर शुभाशय पूर्वक उस धर्म में रंजित हो गये। अपूर्व वस्तु में कौन रंजित नहीं होता! उन मनि को निर्दोष अशन आदि के द्वारा कितने ही काल बाद प्रतिलाभित करके उन्हें उपाश्रय में आस्थापित किया। धर्म ज्ञान के अंजन से अज्ञान तिमिर छिन्न हुआ। उनकी दृष्टि को निर्मल बनाकर मुनि अष्टापद तीर्थ पर चले गये। जिस प्रकार साधु संगम से उन्हें श्रावक धर्म प्राप्त हुआ, उसी को अभीष्ट पुत्री की तरह अन्त तक पालते रहे।
उन्हें धर्म में दृढ़ करने के लिए एक दिन शासन देवता रानी वीरमती को अष्टापद महापर्वत पर ले गयी। उनउनके वर्ण अरिहन्तों की मूर्तियों का दर्शन करके जो आनन्द उसे हुआ, वह वाणी का विषय हो ही नहीं सकता। चौबीस ही अरिहन्तों को श्रद्धापूर्वक वन्दन करके रानी ने उड़कर उसी प्रकार अपने पुर को प्राप्त किया। मेरे द्वारा महातीर्थ को वन्दन किया गया-इस प्रकार विचार करके श्रद्धा के अतिरेक से वीरमति ने प्रत्येक जिनेश्वर देव के नाम से बीस-बीस आयम्बिल तप की आराधना की। हिरण्यमय तिलकों के ऊपर माणिक्य को आसीन करके, उच्छलती हुई कांति के कल्लोल के समान उन तिलकों को अरिहन्तों के लिए बनवाया। ___अन्य किसी दिन रानी ने राजा के साथ अष्टापद तीर्थ पर जाकर जल से अभिषेक करके स्वयं समस्त अरिहन्त बिम्बों की पूजा की। उस काल में उत्पन्न पुण्य वृक्ष के प्रफुल्लित कुसुमों के उपमान स्वरूप तिलकों को
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