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सम्यक्त्व प्रकरणम्
कपिल की कथा
भी नहीं जानते हुए की तरह अपने ध्यान में लीन रहे। सातवें दिन समता-भाव में निमग्न चित्त द्वारा निर्वृति के आह्वान रूप केवल ज्ञान हुआ। पास के व्यन्तर देवों ने उनकी महिमा की। स्वर्णमय कमल के मध्य आसीन होकर उन्होंने देशना दी। संपूर्ण नगर के लोग भी वहाँ कौतुक से आ गये। वह वेश्या भी धात्री पंडिता के साथ वहाँ आयी। उन सुदर्शन केवली ने राग आदि के अत्यन्त दारुण विपाक को बताया। उस धात्री, व्यन्तरी तथा गणिका को प्रतिबोधित किया। अन्य भी बहुत सारे जन प्रबुद्ध हुए। सभी ने सम्यक्त्व, अभिग्रह आदि यथाशक्ति ग्रहण किया। फिर विहार करते हुए भव्यों के समूह को प्रतिबोधित करते हुए शेष कर्मों का क्षय करके परम निर्वृति को प्राप्त किया।
इस प्रकार जो पुरुष चतुर्थ व्रत का अखण्ड-पालन करता है, वह विशुद्ध मानस वाला सुदर्शन सेठ की तरह उज्ज्वलात्मक सिद्धि को प्राप्त करता है।
इस प्रकार चतुर्थ व्रत में सुदर्शन की कथा पूर्ण हुई। अब परिग्रह व्रत पर कपिल का दृष्टान्त कहते हैं
|| कपिल की कथा || कौशाम्बी नामकी नगरी थी। यहाँ के लोगों की निश्चल श्रद्धा अलोक के समान दूसरे देवों आदि के द्वारा भी भेदित नहीं थी। शत्रुओं के गण को जीतनेवाला जितशत्रु राजा वहाँ का अधिपति था। आश्चर्य है कि उसके प्रताप रूपी सूर्य की किरणें बादलों द्वारा भी आच्छादित नहीं होती थी। उस राजा के काश्यप नामक पुरोहित था। सर्वशास्र-सागर में पारंगत वह निश्चय ही साक्षात् ब्रह्मा था। अपने वंश के अनुरूप ही उसकी प्राणप्रिया यशा थी। उसका पुत्र कपिल उस की कुल लक्ष्मी का भवन रूप था। अल्प वय में ही कपिल के पिता का देहावसान हो गया। अतः राजा ने उसका पद अन्य किसी ब्राह्मण को दे दिया, काश्यप का पुत्र होने पर भी योग्यता न होने से उसे पिता के पद पर नहीं बिठाया गया। कहा भी है
नान्वयं ह्यनुरुध्यन्ते राजानः स्वार्थतत्पराः।। स्वार्थ तत्पर राजा वंश-परम्परा का निर्वाह नहीं करते।
वह विप्र पद को प्राप्त करता हुआ छत्र-सम्पदा रूपी लक्ष्मी सहित भव्य भवन प्राप्त करके हाथी पर घूमता था। उसे देखकर कपिल की मां अपने पति के वैभव को याद करके रोती थी। प्रायः स्त्रियाँ पूर्व के दुःखों के कारण ही रोती हुई मिलती है। भूमि को अश्रुधारा से प्लावित करती हुई रोती हुई मां को देखकर कपिल भी आँखों में आँसू भरकर माँ से बोला-हे मात! इतना क्यों रोती हो? उसने कहा-वह ब्राह्मण पुरोहित वृद्धि-समृद्धि के साथ यहाँ से जा रहा था। तुम्हारे पिता भी इसी प्रकार जाया करते थे। यह यादकर के रोना आ गया। तुम्हारे पिता ने सभी विद्याओं को पढ़कर यह पद प्राप्त किया। तुम तो छोटे होने से पद नहीं पाये, अतः यह पद तुम्हारे हाथ से निकल गया। उसने कहा-मां! यदि ऐसा है, तो तूं खेद मत कर। मैं अब भी पढ़ लिखकर अपने खोये हुए पद को पुनः प्राप्त करूँगा। कपिल की माँ ने कहा-वत्स! तुम पुरोहित पद पर आसीन ब्राह्मण के प्रतिद्वन्द्वी हो, यह जानकर कोई भी उपाध्याय तुम्हें यहाँ नहीं पढ़ायगा-यह मैं जानती हूँ। अगर सचमुच पढ़ने की इच्छा है, तो तुम श्रावस्ती चले जाओ। वहाँ तुम्हारे पिता के मित्र इन्द्रदत्त नामके सज्जन है। संपूर्ण विद्याओं को जानने वाले वे तुम्हें विद्यार्थी जानकर अपने पुत्र की ही तरह वत्सल भाव से सम्पूर्ण विद्याएँ पदायेंगे। कपिल ने उस इन्द्रदत्त के पास जाकर अपने आपको विद्यार्थी बताया। इन्द्रदत्त ने भी उसे मित्र-का पुत्र जानकर प्रमुदित होते हुए कहा-हे वत्स! तुमने अच्छा किया जो पढ़ने के लिए यहाँ आ गये। मेरे पास जो कुछ भी विद्या है, वह सभी मैं तुम्हें ग्रहण करवा दूंगा। पर मेरे पास केवल भोजन
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