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सुदर्शन शेठ की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् हाथिनी सन्मुख आती है, वैसे ही हाथी पर चढ़कर सुदर्शन की ओर दौड़ा। उसके पास जाकर शीघ्र ही सुदर्शन को नमस्कार करके अपने अकृत्य का पश्चात्ताप करते हुए विषादग्रस्त हुआ। जिस प्रकार तेजस्वी पिच्छ-गुच्छ द्वारा अरिहन्त के चरणों को प्रमार्जित किया जाता है, वैसे ही अपनी चोटी खोलकर केशपाश के द्वारा राजा ने सुदर्शन के पैर प्रमार्जित किये। श्रेष्ठ विनय के साथ उसे हाथी पर बैठाकर स्वयं छत्रधारक बनकर अपने नगर में प्रवेश किया। अहो! जिनेन्द्र धर्म का प्रभाव कैसा है!सभी जगह जैन शासन की प्रभावना करते हुए अपने महल में ले जाकर सिंहासन पर बैठाकर अपराध की क्षमा माँगकर राजा ने स्वयं रात्रि की घटना पुनः पूछी। श्रेष्ठि ने कहा-जो बीत गया, सो हो गया। लेकिन उस घटना को सुनने की जिज्ञासा से राजा ने अत्याग्रह किया। तब सुदर्शन ने कहाअगर आप महारानी अभया व धात्री को अभयदान देंगे, तो मैं निर्भय होकर सारी वार्ता आपको बताऊँगा। राजा ने कहा-आपके बोलते ही मैंने उनको अभयदान दे दिया। हे श्रेष्ठि! आपके वचन मेरे लिए गुरुवचन के तुल्य है। अतः अब आप निःसंकोच कहिये। श्रेष्ठि ने सारी घटना राजा को सुना दी। तब राजा ने विचार किया
चरित्रं नारीणामगम्यं वाक्पतेरपि । धिक्कार है। धिक्कार है। नारियों का चरित्र बृहस्पति द्वारा भी अगम्य है।
श्रेष्ठि के ऐसे सत्त्व से राजा खूब तुष्ट हुआ। सहोदर की तरह राजा ने उसे अपना आधा राज्य दे दिया। श्रेष्ठि ने निषेध करते हुए कहा-राजन्! मुझे राज्य से क्या लेना देना! मैं तो अब संयम साम्राज्य को ग्रहण करूँगा।
इस प्रकार राजा को अवगत कराकर अपना सर्वस्व दान में देकर, सकल चैत्यों में पूजा करवाकर, वैराग्य रंग से रंजित होकर अपनी प्रिया मनोरमा के साथ श्री धर्मघोष आचार्य के पास संयम ग्रहण किया।
सुदर्शन का देवता कृत उद्यम देखकर, राजा के द्वारा किया गया सत्कार सुनकर अभया के दिल पर गहरी चोट पहुँची। उसने भय से चमककर फांसी लगाकर मृत्यु का वरण कर लिया। उस अज्ञान कष्ट रूपी मृत्यु से मरकर वह पाटलिपुत्र नगर के श्मशान में व्यन्तरी रूप से उत्पन्न हुई। अपने अपराध के भय से धात्री पण्डिता तो उसी समय अपने प्राणों को लेकर वहाँ से गायब होती हुई पाटलीपुत्र नगर में आ गयी। वेश्या देवदत्ता की सेवा में रहने लगी। वहाँ वह दिन रात सुदर्शन के उन-उन गुणों का वर्णन करने लगी। पुण्यात्मा सुदर्शन ने भी व्रत को उज्ज्वल रूप से पालकर बिना थके चिर-दीक्षित साधु की तरह श्रुत को पढ़ा। क्रमपूर्वक गीतार्थ होकर तप संयम में सुस्थिल रहते हुए गुरु आज्ञा से एकाकी विहारी हुए। गाँव में एक रात्रि तथा पत्तन में पाँच रात रहते हुए मुनि विहार करके क्रम से पाटलीपुत्र गये। उच्च-नीच घरों में भिक्षा के लिए विचरते हुए कहीं दैवयोग से उस पण्डिता धात्री ने देख लिया। तब वातायन में खड़ी अपनी स्वामिनी को उस पण्डिता धात्री ने अंगुली का इशारा करके सुदर्शन को दिखाया। उसने भी मुनि को आख्यात गुणों से भी अधिक गुणी देखा। शोभा श्रृंगार से रहित मुनि का शरीर वस्र से ढके दीप की तरह था। उन मुनि के गुणों में आसक्त चित्तवाली ने भिक्षादान देने के छल से मुनि को अपने पास बुलाया। मुनि के घर में प्रवेश करते ही उसने दरवाजा बन्द कर दिया। और अनेक प्रकार के अपने हावभाव से उन्हें उपसर्ग देने लगी। कतक फल से साफ किये हुए पानी की तरह निर्मल चित्तवाले मुनि अत्यधिक तूफानी हवा के द्वारा भी अचलित सुमेरु पर्वत की चोटी के समान चलित नहीं हुए। उसका प्रयत्न सगोत्र पर चक्र की तरह सुदर्शन पर तुच्छ धूल के समान ही साबित हुआ। तब संध्या समय उन निर्दोष मुनि को उस खिन्न वेश्या ने छोड़ दिया। मुनि भी श्मशान में जाकर उठी हुई डालीवाली शाखा की तरह अथवा शिला स्तम्भ की तरह प्रतिमा में स्थित हो गये। भाग्य से वहाँ व्यन्तरी बनी हुई अभया ने उन्हें देख लिया। देखकर क्रुद्ध होते हुए विचार किया कि-यही मेरी मृत्यु का कारण है। उस पापीनी वैरिन ने निर्दयिनी यमपत्नी की तरह उन्हें यातना देने के लिए कठिन से कठिन उपसर्ग दिये। पर वहाँ भी सुदर्शन मुनि क्षुभित नहीं हुए। उसके द्वारा शाता-अशाता आदि किये जाने पर
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