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सुदर्शन शेठ की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् रौहिणेय ने अपना वत्त बताकर अपने सहयोगियों को प्रतिबोधित करके अभय व श्रेणिकर जिनेश्वर के पास पहुँचा। रौहिणेय ने प्रणाम करके कहा-हे स्वामी! कठिनाई से तैरने योग्य भव सागर में आपकी योजन गामी वाणी मनुष्यों को तिराती है। मढातिमढ अभिमानी मेरे पिता द्वारा मेरे लिये आपके वचन सनने का निषेध किया गया। मेरे पिता ने मेरी इतनी हानि की और मूर्ख-शिरोमणि मैंने आपकी वाणी नहीं सुनी। हाय! आप को छोड़कर नीम को चाहनेवाले काग की तरह मैंने आपके वचनों को छोड़कर एक चोर के वचनों में प्रीति धारण की। हे स्वामी! आपके उपदेश का एक देश भी निवृतिप्रद है। क्यों न हो
न स्यान्माधुर्यभाक् किं वा शर्कराया लवोऽपि हि । शक्कर का एक दाना भी क्या मधुरता का पात्र नहीं होता?
हे प्रभो! आपके उपदेश रूपी अमृत के कणों को जो नित्य श्रद्धापूर्वक यहाँ पीते हैं उन का क्या-क्या नहीं होगा। हाय! मुझे सोचकर भी कष्ट होता है कि मैं कैसे आपके वचन श्रवण के त्रास से अपने कानों को ढककर इस स्थान से निकलता था। आपके एक ही वचन को बिना इच्छा के सुनने से मेरे द्वारा अभय के बुद्धिबाण की स्खलना की गयी। अगर आपका एक वचन मुझे मरण से रक्षा दिला सकता हैं, तो हे जगन्नाथ! मुझे सदा के लिए अमर कर दो। तब प्रभु ने कहा-सात्त्विक साधु धर्म ही उस प्रकार की अमरता को संपादन करने वाला रसायन है। उन वचनों को सुनकर रौहिणेय की भावना द्विगुणित हो गयी। राजा श्रेणिक तथा महामंत्री अभय द्वारा निष्क्रमण महोत्सव किया गया। श्री महावीर के पास प्रव्रज्या अंगीकार करके उनके वचनामृत का पान करते हुए महावीर स्वामी के साथ विहार किया। शरीर से निरपेक्ष रहते हुए उपवास से लगाकर छ मासी तक दुष्कर व उज्जवल तप से तप्त हुए। एकासणे के समान लीलामात्र से एकावली प्रमुख अनेक तपों को तपते हुए रौहिणेय साधु ने महाधैर्य को धारण किया। ग्रीष्म काल में सूर्य की आतापना लेते तथा शीत काल में हिमागम सहन करते। अस्थि चर्म से अवशेष अंगवाले वे मुनि तप श्री से दीप्तिमान बने।
एकबार वीर प्रभु पुनः राजगृही पधारे। श्रेणिक महाराज प्रभु को वन्दना करने आये। श्रेयसी भक्ति से प्रभु को नमस्कार करते हुए पूछा-हे प्रभों! इन मुनियों में कौन से मुनि विशेष रूप से महासत्त्वशाली है। श्रीमद्वीर जिनेन्द्र ने कहा-राजन्! वैसे तो सभी मुनि महासत्त्व वाले है, पर रौहिणेय मुनि विशेष रूप से महासत्त्व वाले हैं। तब श्रेणिक राजा ने अतिभक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। कहा भी है
पाषाणोऽपि गुणैः किं वा देवबुद्धया न पूज्यते । गुणों का आरोपणकर देव बुद्धि से क्या पाषाणों को नहीं पूजा जाता?
अत्यन्त उग्र तप रूपी अग्नि से अपने दुष्कृतों को भस्म सात करते हुए अन्त समय प्राप्तकर वीर जिनेश्वर को पूछकर आलोचना प्रतिक्रमण करके सम्पूर्ण प्राणियों से क्षमायाचना करके पुनः व्रत उच्चारण करके समता सुधारस का पान किया। आराधना विधिपूर्ण करके अनशन धारण करके पर्वत पर जाकर शुद्ध शिलातल पर पादपोपगमन संथारा ग्रहण किया। ध्यान संपूर्ण करके वे तेजस्वी, भाग्यशाली मुनि परमेष्ठिमन्त्र का लगातार स्मरण करते हुए देह का त्याग कर देवत्व को प्राप्त हुए वहाँ से क्रमपूर्वक रौहिणेय मुनि सिद्धि का वरण करेंगे।
इस प्रकार अदत्तादान विरतिव्रत में रौहिणेय की कथा पूर्ण हुई। अब चतुर्थव्रत पर सुदर्शन शेठ की कथा कहते है
|| सुदर्शन शेठ की कथा ।। इसी जम्बूद्वीप के अन्दर मध्यखण्ड में भारत में निष्प्रकंप चंपा नामकी नगरी थी। वहाँ दधिवाहन राजा राज्य
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