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सम्यक्त्व प्रकरणम्
पूजा विधि
निट्ठीयणादकरणं असक्कहाऽणुचिय आसणाई य ।
आययणंमि अभोगो इत्थ य देवा उदाहरणं ॥५२॥ निष्ठीवन नहीं करना चाहिए। अर्थात् दन्त-शोधन, चरण-प्रक्षालन, शरीर का मैल उतारना आदि, स्त्री कथा आदि असत्कथा को भी नहीं करना योग्य है। अनुचित आसन आदि नहीं करना चाहिए। यहाँ अनुचित आसन से तात्पर्य गुरुदेव से ज्यादा बड़ा या ज्यादा मुलायम आसन से है। आदि शब्द से चन्दन, कुसुम, कुंकुम, कस्तूरि आदि का भोग-अनासेवन है। आयतन अर्थात् जिनघर में ये नहीं करना चाहिए। यहाँ देवों का उदाहरण अर्थात् दृष्टान्त है।।२।। इसी को आगे कहते हैंदेवहरयंमि देवा विसयविसमोहिया वि न कया वि ।
अच्छरसाहिं पि समं हासखिड्डाइ वि कुणंति ॥५३॥ जिनगृह में देव भी कदापि विषय विष से मोहित होकर नहीं ठहरते हैं। जरा मात्र भी हास्य क्रीड़ा आदि को नहीं करते हैं। अर्थात् अत्यन्त विषयी, सतत अविरत देव भी असत् चेष्टाओं का परिहार करके संवृतात्मा के रूप में जिनभवनादि में रहते हैं, तो विरताविरति गृहस्थों द्वारा तो भली प्रकार से परिहार करके ही रहना चाहिए।।५३॥
__इस प्रकार आशातना दशक की वर्जना की व्याख्या की गयी। अब जिन द्रव्य भक्षण इत्यादि की व्याख्या करने के लिए रूपक चतुष्टय कहते हैं
भक्खेइ जो उवेक्खेड़ जिणदव् सावओ । पन्नाहीणो भवे जो उ लिप्पड़ पायकम्मणा ॥५४॥ आयाणं तो भंजइ पडियन्नधणं न देइ देवस्स । नस्संतं समुवेक्खड़ सो वि हु परिभमइ संसारे ॥५५॥ चेइयदव्यं साहारणं च जो दुहइ मोहियमइओ। धम्म व सो न याणइ अहया बद्धाउओ नरए ॥५६॥ चेइयदव्ययिणासे तद्दव्यविणासणे दुविहभेए । साहू उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ भणिओ ॥५॥
जो स्वयं जिन द्रव्य का भक्षण करता है अथवा अन्यों के द्वारा भक्ष्यमाण जिन द्रव्य को देखता है, वह प्रज्ञाहीन थोड़े अथवा बहुत रूप में कार्य सिद्धि को नहीं जानता हुआ मन्दमति रूप से यथा कथंचित् जिनद्रव्य को बेचने व लेखा रखने वाले के साथ नित्य संबंध रखने से वह पापकर्म से लिप्त होता है।
जो आज्ञा का भंग करता है, देव के प्रतिपन्न धन को नहीं देता है, वह सामर्थ्य होने पर भी नाश को देखता है वह भी संसार में परिभ्रमण करता है। ___ सात क्षेत्र में उपयोगी साधारण चैत्य-द्रव्य को जो मोहित मति, पापकर्मा कालान्तर में भोग आदि के द्वारा भक्षण करता है, द्वेष करता है अथवा दुषित है वह सर्वज्ञ प्रणीत धर्म को नहीं जानता। अर्थात् धर्म को नहीं जानता हुआ भक्षण करता है अथवा भक्षण काल से पहले उसने नरकायुष्य का बंध कीया हुआ है।
चैत्यद्रव्य सुवर्णादि का विनाश तथा. उस द्रव्य के विनाशन में उस चैत्य द्रव्य का उपकारक लकड़ी ईंट पत्थर आदि का विनाश होने में दो प्रकार का भेद है। एक तो नवीन तथा दूसरा लगे हुए को उखाड़कर विनाश करना। मूल उत्तर भेद से भी दो प्रकार का है। इसमें मूल तो स्तम्भ कुम्भिका आदि तथा उत्तर रूप छादन आदि। अथवा स्वपक्ष परपक्ष जनित भी विनाशन के दो भेद हैं। स्वपक्ष में श्रावक आदि तथा परपक्ष में मिथ्यादृष्टि
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