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पूजा विधि
सम्यक्त्व प्रकरणम् आदि। श्रावक के साथ-साथ सर्व सावद्य से विरत यति भी उपेक्षा करता हुआ, उदासीनता रखता हुआ अनंत संसारी होता है-ऐसा तीर्थंकर व गणधरों ने कहा है। और इस प्रकार यति के यतित्व की हानि नहीं होती, बल्कि उसके नव्य वस्तुओं के आदन की अति इच्छा रखने से हानि होवे। क्योंकि आगे तो गायब होती हुई वस्तुओं की विशेष रूप से रक्षा करने से उसकी पुष्टि ही होती है। जिससे आगम में भी इसी प्रकार कहा है
चोएइ चेइयाणं खित्तहिरन्ने य गामगेहाई । लग्गे तस्स उ जइणो तिगरणसोही कहं नु भवे ॥१॥ भन्नइ इत्थ विभासा जो एयाइं सयं विमग्गिज्जा । तस्स न होइ सोही अह कोई हरिज्ज एयाइं ॥२॥ तत्थ करंतुव्वेहं सा जा भणिया उ तिगरणविसोही । सा य न होइ अभत्ती य तस्स तम्हा निवारिज्जा ॥३॥ सव्वत्थामेण तहिं संघेण य होइ लग्गियव्वं त । सचरित्तऽचरित्तीण य सव्वेसिं होइ कज्जं तु ॥४।। (पञ्चकल्पभाष्य गाथा १५६९-१५७२)
जो यति चैत्यों के लिए ग्राम, घर आदि में क्षेत्र-हिरण्य आदि की प्रेरणा करता है, उस कार्य में लग्न उस यति की त्रिकरण-विशुद्धि कैसे नहीं होगी? ____ जो स्वयं कुमार्ग में पड़कर इन सभी कार्यों की विभाषा से प्रेरणा करता है, अथवा कोई इन वस्तुओं का हरणकर लेता है, तो उस यति की शुद्धि नहीं होती।
'वहाँ ऐसा करवाना चाहिए' इस प्रकार त्रिकरण की विशुद्धिपूर्वक गृहस्थों को असद् से निवारण करके सद्कार्य में लगाता है, तो वह यति की अभक्ति नहीं है।
सर्वत्र साधारण रूप से इन कार्यों में संघ को लगाना चाहिए। सचारित्री हो या अचारित्री-सभी का यह कर्तव्य होता है।।५४ से ५७॥
अब जिनद्रव्य के प्रभाव को प्रकट करने के लिए भक्षण, रक्षण, वर्धन और फल को बताने के लिए तीन गाथाओं को कहते हैं
जिणपययणयुड्डिकरं पभावगं नाण-दंसण-गुणाणं । भक्खंतो जिणदव्वं अणंतसंसारिओ होई ॥५८॥ जिणपवयणयुड्डिकर पभावगं नाणदंसणगुणाणं । रक्खंतो जिणदव्यं परित्तसंसारिओ होइ ॥५९॥ जिणपवयणयुड्डिकरं पभावगं नाणदंसणगुणाणं ।
वडंतो जिणदव्यं तित्थयरत्तं लहइ जीयो ॥६०॥ जिनशासन की एवं ज्ञान-दर्शन रूपी गुणों की वृद्धि करनेवाले जिनद्रव्य-देवद्रव्य का भक्षक अनंत संसारी होता है। ।।५८॥
जिनप्रवचन के वृद्धिकारक ज्ञान-दर्शन एवं उपलक्षण से चारित्र आदि गुणों के प्रभावक होते हैं। क्योंकि जिनशासन की वृद्धि चैत्यालय के बिना नहीं होती और चैत्यालय के प्रति प्रत्येक को जागृत बनाने के लिए उस जीर्ण-शीर्ण चैत्यालय का पुनरुद्धार करने के लिए द्रव्य की आवश्यकता होती है। अतः श्रावकों के द्वारा द्रव्य पूजा किये जाने पर ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुण दीप्त होता है। जिससे अज्ञानी भी 'अहो! तत्त्वानुगामी इनकी बुद्धि है' इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हुए क्रम से ज्ञानादि-गुण-लाभ के पात्र होते हैं। जिनद्रव्य की रक्षा करता हुआ
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