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रौहिणेय की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् हो गया। गुरु वचनों पर विश्वास के साथ ही उसकी मुखाकृति रंगहीन हो गयी। अपनी भावी नारकीय मृत्यु दुःसह रूप से मन को भयभीत बनाने लगी। उसने विचार किया-निश्चय ही आज सातवाँ दिन है, आठवाँ नहीं। मुझसे भूल हो गयी है। अतः लौटकर वापस घर चला जाऊँ। इस प्रकार मन में विचार करते हुए राजा दत्त ने बिना किसी को बताये शीघ्र ही घोड़े का मुख फेर लिया। तब उसके सामन्तों आदि के मन में शंका उत्पन्न हुई कि इस दत्त के मन्त्र-तन्त्र शुद्ध नहीं है, जिससे कि यह वापस मुड़ गया है। अतः महल में प्रवेश करने से पहले ही अभी ही इसे पकड़ ले। इस प्रकार विचार करके देखते ही देखते सभी ने दत्त को पकड़ लिया। पूर्व राजा जितशत्रु को पिंजरे से मुक्त करवाकर राज्य पर आसीन किया। फिर उपहार की तरह बाँधे हुए दत्त को राजा जितशत्रु को भेंट किया। राजा ने भी उसके पाप रूपी वृक्ष के पुष्प को बताने के लिए कुत्तों के साथ बाँधकर उसे कुम्भी में डालकर द्वार के नीचे अग्नि जला दी। धातु की तरह जलने से उसकी धमनियाँ तपने लगी। ताप से दुखित भूखे कुत्तों द्वारा उसके टुकड़ेटुकड़े कर दिये गये। आर्त्त-रौद्रध्यान रूपी भूजाओं का आलम्बी वह दत्त नरक को प्राप्त हुआ।
उधर कालिकाचार्य ने चिरकाल तक संयम पाला। शुभ ध्यान रूपी अमृत का पान करते हुए वे देवलोक में गये। अपने जीवन को तृण के समान जानकर जैसे कालिकाचार्य ने दत्त के डर से असत्य नहीं कहा, वैसे ही सभी के द्वारा असत्य-भाषण नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार मृषावाद विरति व्रत में विप्र कालिकाचार्य का कथानक संपन्न हुआ। अब तृतीयव्रत पर रौहिणेय की कथा कहते हैं
|| रौहिणेय की कथा ।। इस भरत क्षेत्र में जम्बूद्वीप के एक बाजु में सर्व देश-गुणों से युक्त मगध नाम का देश था। उसमें राजगृह नाम का पुर था। वह राजगृह नगर जगत के सम्पूर्ण नगरों के बीच अपनी मनोरमता को प्राप्त करता हुआ सकलश्री से युक्त उत्तम पुर के रूप में स्थित था। प्रजा रूपी चन्द्रकान्त मणियों के बीच चन्द्रमा के समान राजा श्रेणिक नित्य बढ़ते हुए प्रताप रूपी कौतुक से अखण्डित था। उस राजा के रानियों में दो अतीव प्रिय रानियाँ थीं-सुनन्दा
और चेलणा। जिस प्रकार काम देव को रति में तथा शिवजी को पार्वती में प्रीति थी, उसी प्रकार राजा की प्रीति उन दोनों रानियों में थी। सुनन्दा रानी के अभयकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अर्हत्धर्म से युक्त पवित्रात्मा था तथा बुद्धि रत्न के पर्वतों का समूह था। राजगृह के समीप ही वैभार नामका महापर्वत था। सूर्य के उदय व अस्त के लिए वह ज्योतिष चक्र विश्रामस्थल की तरह था। उसी पर्वत में एक गुप्त गुफा गर्भ था, जो किसी को भी ज्ञात नहीं था। उसमें कुविख्यात लोहखुर नामका चोर रहता था। राजगृह में पौरजनों को ठगता हुआ वह चोर सम्राट राजा की तरह अपनी आज्ञा में रहे हुए दास-दासियों के पुत्रों को अपना ही मानता था अथवा परस्त्री तथा परधन पराये होते हुए भी आत्मा को प्रिय लगते हैं। इस प्रकार राजगृह में सब कुछ आत्मीय रूप से भोगता था। उसका पुत्र रौहिणेय उसकी पत्नी रोहिणी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। दीप से जलाये हुए दीप की तरह वह साक्षात् उसी के अनुरूप था। अपना मृत्युकाल समीप जानकर लोहखुर ने अपने पुत्र से कहा-मैं तुम्हें एक सीख देना चाहता हूँ। हो सके तो उसका पालन करना। उसने कहा-हे तात! आपके वचन मेरे लिये गुरु आज्ञा के समान हैं। अतः आदेश दीजिए। पुत्र के विनय से खुश होकर लोहखुर ने कहा-वत्स! देवों द्वारा निर्मित समवसरण में श्रीवीर की धर्मव्याख्या होती है, पर तुम उनके वचनों को कभी मत सुनना। अपने कुल के अनुरूप कार्य करना। शेष अपनी बुद्धि के अनुसार कार्य करना। इस प्रकार कहकर स्वकर्म के फलस्वरूप पंचत्व को प्राप्तकर नरक में निवास किया।
पिता के मृत्युकार्य को करके रौहिणेय ने भी क्रम से उनके आदेश को अपने शरीर की तरह रक्षा करते हुए
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