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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा
क्योंकि
स्वभावो बलवान् खलु । स्वभाव निश्चय ही बलवान् होता है।
जैसे बंदर ने श्रेणिक के हार को चुराया था, उस प्रकार अपहरण करके मैं अपने सर्वांग को छिपाता हुआ अनुत्सुक होता हुआ बाहर निकलने लगा। मेरे इङ्गित आकार को देखकर राजा ने सब कुछ जान लिया। कहा भी
चतुराः किं न जानन्ति यद्वा चातुर्यचर्यया । चतुर मनुष्य अपनी चतुरता की चर्या से क्या नहीं जान लेते? अर्थात् सब कुछ जान लेते हैं।
राजा के द्वारा आदेश दिये गये मनुष्यों द्वारा शीघ्र ही मैं बन्धक बनाकर वध्य भूमि की ओर ले जाया जाने लगा। तब मैंने आपको देखा। प्रत्याभिज्ञान से मैंने आपकी शरण स्वीकार की। आपने मुझ मरे हुए जीवातुर को जीवन रूप औषधि प्रदान की। आपके तापसपुर से चले जाने पर वसंत सार्थवाह देह से विरक्त हुए की तरह कुछ भी खाता-पीता नहीं था। तब वहाँ के लोगों द्वारा और कुछ गुरु के द्वारा प्रबुद्ध किये जाने पर सात दिन बाद आठवें दिन उसने आहार ग्रहण किया। अन्य किसी दिन बहुत से लोगों को लेकर वह सार्थवाह कोशलाधीश नल के अनुज कूबर के पास जाकर उसकी अर्चना की। उसने भी सार्थवाह को उस-उस प्रकार के दिव्य उपहार देकर उसी तापसपुर का भूपति नियुक्त किया एवं उसे वसन्त श्री शेखर नाम दिया। कहा भी जाता है
उपर्युपरि लभ्यन्तेऽनुकूले हिं विधौ श्रियः। भाग्यश्री के अनुकूल होने पर सब कुछ उपरा-उपरी प्राप्त होता है।
कूबर से विदा लेकर वह अपने नगर को आ गया। आपकी तरह निर्मल धर्मरूपी बुद्धि से राज्य को धारण किया।
दमयन्ती ने यह सब सुनकर कहा-हे वत्स! पिङ्गल! प्रव्रज्या पथ पर आरूढ़ होकर दुष्कृत संसार समुद्र से तिरा जा सकता है। उसने कहा-देवी! क्या मेरा ऐसा भाग्य है कि मैं सिद्धि का संगम करानेवाली दूतिका रूपी अरिहन्त दीक्षा को ग्रहण कर पाऊँ?
तभी वहाँ साधुओं का सिंघाड़ा आया। शद्ध भावों द्वारा शुद्ध भिक्षा से भैमी ने उनको प्रतिलाभित किया। फिर उन दोनों साधुओं को उसने कहा-अगर यह पिङ्गल योग्य है, तो इस भवारण्य को यह व्रत रूपी रथ के द्वारा उल्लंघन कर जाये। उन दोनों मुनियों ने कहा-जिसके सिर पर तुम जैसी कल्याणी का हाथ है, वह अवश्य ही योग्य है। तब उसे चैत्य में ले जाकर उनके द्वारा दीक्षा दे दी गयी।
एक बार विदर्भ राजा ने सुना कि जुए में नल को जीतकर कूबर ने राज्य ग्रहण कर लिया। नल ने दमयन्ती के साथ जंगल में प्रवेश कर गया। पर यह ज्ञात नहीं है कि वे कहीं हैं या नहीं? पुष्पदन्ती रानी ने यह सुनते ही पुत्री-जामाता की दुःखाग्नि को शमित करने के लिए रोते हुए अश्रुओं की बाद कर दी। तब राजा भीम ने अपने स्वामी के संपूर्ण कार्यों को सफल बनाने में पटु हरिमित्र बटु को उन दोनों की खोज के लिए भेजा। वह बटु सर्वत्र ग्राम, नगर, उद्यान आदि में नल-दमयन्ती को खोजता हआ अचलपर नगर में ऋतपर्ण राजा के पास आया। चन्द्रयशा देवी ने उससे पूछा-मेरी बहन महारानी पुष्पदंती तथा उनका परिवार क्षेम-कुशल तो हैं। बटु ने कहा-हे देवी! उनकी कुशल क्षेम तो केवल नल-दमयन्ती की कुशल क्षेम देखने में है। रानी ने कहा-हे बटु! कर्णकटु शब्दों को क्यों बोल रहे हो? तब बटु ने नल-दमयन्ती का सारा वृत्तान्त उन्हें सुनाया। उस वृत्तान्त को सुनकर देवी व सभी जन आँखों से नदी की धारा के समान विशाल अश्रुजल गिराने लगे। सभी लोग शोक रूपी समुद्र में निमग्न हो
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