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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा . इस प्रकार उन साधर्मिकों को अपना वृत बताकर उसने उनसे कहा कि आप भी अपना वृत्तान्त बताकर मुझे अनुगृहित करें।
धनदेव ने जो भैमी के मुख से सुना था, वही वृत्तान्त उसने अश्रुपूरित नयनों के द्वारा उस साधर्मी को कह सुनाया। भैमी तो केवल अश्रुकणों को दुष्कर्म वाली होकर आँखों से गिराती रही। कुलीन पति की तरह उसके कर्म उसका साथ ही नहीं छोड़ रहे थे। कहा भी गया है
कर्म परं लुम्पति नाऽवधिम्। अर्थात् पलभर की अवधि के लिए भी कर्म लुप्त नहीं होता।
उस साधर्मी ने भी उसकी इस दुःखी दशा से आक्रान्त होकर भैमी को कहा-दुःख मत करो। भोगे बिना कर्म का छुटकारा नहीं है।
सार्थ के अचलपुर पहुँचने पर धनदेव विदर्भ-सुता से पूछकर इप्सित स्थान को चला गया। वैदर्भी पुर के समीप वापी में प्यास से पीड़ित होकर बैठ गयी। पुर की नारियों ने उसे विस्मित होकर जलदेवी की तरह देखा। तभी मुँह से आग उगलते हुए सर्प के समान मगरमच्छ ने उसके बायें पैर को मुँह में जकड़ लिया। अबला तथा निःसहाय किसी के द्वारा अभिभूत नहीं होते। सती ने उसी क्षण तीन बार परमेष्ठि मन्त्र का स्मरण किया। क्षण मात्र में ही चन्दन घो के मुख से छुटे हुए सर्प की तरह उसका पैर पृथ्वी तल पर आ गया।
सती पानी पीकर हंसिनी के समान वापी से निकली तथा वापी के बरामदे में विषाद सहित बैठ गयी। गरुड़ के बैरी की तरह ऋतुपर्ण वहाँ का राजा था। उसकी पत्नी नाम से तथा अर्थ से चन्द्रयशा थी। उसकी दासियों ने उस सती को उस अवस्था में देवी के समान देखा।
रजोर्भिगण्डिता यद्वा मणिरेव मणिनं किम् ? रज से युक्त मणि क्या मणि नहीं है? अर्थात् मणि ही है।
उन दासियों ने विस्मित होकर सारा वृत्तान्त अपनी स्वामिनी को निवेदन किया। नगर के बाहर नगर देवता की तरह एक नारी देवी बैठी हुई है। तब रानी ने उसे लाने के लिए आदेश दिया। इन्द्राणी की छोटी बहन की तरह वे दासियाँ उसे शीघ्र ही ले आयीं।
वह चन्द्रयशा देवी पुष्पदंती देवी की सहोदरा थीं। पर भैमी नहीं जानती थी कि ये मेरी मौसी है। चन्द्रयशा देवी जानती थी कि मेरी एक भानजी है, पर बालपन में सिर्फ एक बार देखा था, अतः उसे पहचानने में समर्थ नहीं हो सकी। देवी ने जब उस सती को देखा तो अपनी सुता की तरह लगी। क्यों न हो। पूर्वभव के सम्बन्ध भी अनजाने नहीं रहते, तो इस जन्म के संबंध अभिज्ञ कैसे न हो?
उन चन्द्रयशा देवी को देखकर दमयन्ती को भी अपनी माता की तरह के स्नेह से परम प्रीति प्राप्त हुई। समान स्वजनों से उत्पन्न भी राजपत्नी व नलप्रिया अलग अलग भी अभेद को चाहती हुई मन से तथा देह से एक ही थीं। स्नेहपूर्वक भैमी ने साश्रु नयनों से देवी के चरणों में वन्दन किया। क्यों न हो।
किमुच्यते कुलीनानां विनयव्रतपालने ? कुलीनों का विनयव्रत पालन में क्या कहना?
देवी ने पूछा-तुम कौन हो? तब भैमी ने कहा-मैं वणिक् सुता हूँ। महावन में पति द्वारा त्यक्ता मैं अपुण्यशालिनी हूँ। चन्द्रयशा ने आर्द्रनयना नलवल्लभा को कहा-वत्से! तुम मेरी पहली पुत्री हो और उसके बाद चन्द्रवती है।
अगले दिन चन्द्रयशा ने विचार किया कि इस पुत्री के सभी गुण दमयन्ती की तरह ही प्रतीत होते हैं। पर उसकी यह दशा कैसे हो सकती है? वह इस तरह यहाँ पर कैसे आ सकती है? वह तो अर्धभरत के राजा नल की
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