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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा कुब्ज नल ने स्वयं से कहा-मुझ दुरात्मा के द्वारा अपनी प्रेयसी को कैसे गहन वन में एकाकी छोड़ दिया गया।
राजा ने कहा-महामात्य! अभी तो नाटक का उपक्रम ही है। शुरूआत में ही यह महान् कष्टवाला एवं करुणा रस से युक्त है। ___नेपथ्य से गान्धार की आवाज आती है-पिंगल! इस तपस्विनी को अनुकूल करो, जिससे शीघ्र ही इसे सार्थ पति के पास ले जाया जाय।
यह सुनकर योजना बनानेवाले सूत्रधार ने सोचा-ये रंगजीवी हैं। गान्धार, भैमी व पिंगल के वेष में आचरण कर रहे हैं। यह नाटक कब कार्यान्तर में प्रवृत्त हो जावे। अतः मैं उचित काल तक यहीं रहूँगा।
यह विचार कर वह बैठ गया। तब भैमी, पिंगल तथा गान्धार प्रवेश करते हैं। गान्धारक कहता है-आर्ये! अब रोना बन्द करो। हमारा सार्थपति धनदेव है। अगर अचलपुर जाना चाहती हो, तो उसकी सन्निधिरूपी सार्थ में आ जाओ।
भैमी ने कहा-हे आर्य! मैं अपने पति की खोज करूंगी। उसने पूछा-तुम्हारा पति कौन है? भैमी ने कहानैषधि नल ही मेरे पति हैं। ___कुब्न नल ने अपने आप से पूछा-हे पापी नल! तुम विलीन क्यों नहीं हो जाते? अगर देवी निश्चय ही नहीं है, तो उसकी नाटक में प्रतिकृति कैसे है?
पिंगल ने क्रोधित होकर कहा-नल जैसे आर्य के द्वारा यह अनार्य कर्म क्यों किया गया? जानवरों के साथ भी ऐसा नहीं किया जाता।
अतः हे देवी! सार्थेश के पास आओ।
राजा ने हर्षित होकर कहा-साधु! साधु! हे कुशील सेवी! स्वप्न में भी कोई ऐसे नहीं छोड़ता है, जैसे तुमने इसे एकाकी छोड़ा है।
नल यह सुनकर क्रोधित होकर अस्पृश्य, अश्रव्य, अग्राह्य के समान हो गया। गन्धार ने कहा-हे मुग्धे! तुम अपने पति की खोज कहाँ करोगी? भैमी ने कहा-मेरे पति जल में होंगे वा आकाश में चले गये होंगे। अतः यहीं उनकी खोज करूँगी।
तब गान्धार ने कहा-हे अज्ञानी बाला! तूं मूढ़ है। जो तुम्हें नींद में सोया हुआ छोड़कर चला गया है, हे माता! उसकी इच्छा क्यों करती हो?
भैमी ने कहा-ऐसा मत बोलो। मैं आर्यपुत्र की प्राणों से भी प्यारी वल्लभा हूँ। राजा ने कहा-उसके त्याग करने से पति का प्रेम उसने बता ही दिया है।
भैमी परिक्रमा करती हुई कहने लगी-हे सर! क्या मेरा प्रिय यहाँ नहीं है? मेरा पति यहाँ होना ही चाहिएइस प्रकार उसने चक्रवाकी को पूछा। हे सखी! चक्रप्रिये! मुझे अपने प्रिय का आख्यान सुनाओ। वे भी प्रिय वियोग में प्रत्यक्ष ही दुःखी होंगे।
भैमी ने क्षणभर रूककर कहा-प्रिय प्रणय से गर्वित यह चक्रवाकी भी उत्तर नहीं देती। अतः सरोष उसे फेंक दी। हे दासियों! हे रथांगिका! क्या तुम भी प्रिय प्रणय में निमग्न हो? तो सुनो! मेरे भी वाणी से अगोचर प्रणयप्रिय पति था।
गांधार ने साश्रु कहा-हे आर्य! यह यक्षिणी बेचारी क्या जाने?
तब भैमी ने कहा-ठीक है। अन्य जगह देखती हूँ। दूसरी जगह देखकर उसने पुनः कहा-भाइयों! बहनों! पिताओं! माताओं? हे कुंजर वल्लभे! शीघ्र ही मुझे प्रसन्न करो। बोलो कि यह वही है।
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