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सम्यक्त्व प्रकरणम्
देखते हो ।
पिंगल ने कहा- हे आर्ये! तुमने अपने पति को नहीं पाया है, बल्कि यह तुम्हारी ही प्रतिछाया है। तब दमयन्ती ने कहा- आर्य - छाया की तरह क्या ये मेरे आर्यपुत्र नहीं हैं। सत्य ही उनके द्वारा त्यक्त मैंने अपनी छाया को देखकर ही कहा होगा।
नल दमयन्ती की कथा
हे हार ! मेरे गले से विहार कर जाओ । मुझे फूल नहीं चाहिए। इनका स्पर्श मुझे पीड़ा प्रदान करता है। नल के बिना सभी श्रृंगार मुझे अंगार के समान लगते हैं।
राजा ने सहसा ही उठकर कहा- धन्य है पतिव्रता ! धन्य है ।
प्रायेण विशरारूणि प्रेमाणीह शरीरिणाम् ।
इसके शरीर के अणु - अणु में पति-प्रेम भरा हुआ है।
विशेष रूप से तुम पति को खोजना बन्द करो । यहाँ आओ। तुम हमारी सुता, माता अथवा देवता हो । सपर्ण ने कहा- हे देव! यह बार-बार व्यामोह क्यों हो रहा है? यह तो देव को बताने के लिए नट की विभीषिका है। अतः हे देव! अपने आसन को अलंकृत कीजिए । राजा सलज्ज होकर बैठ गया ।
विषाद से ग्रस्त हो गया। हे पृथ्वी! प्रसन्न हो । पाताल जाने के लिए मुझे विवर दिखा। फणीन्द्र के विष से मूर्च्छित के समान मुझे कुछ भी होश नहीं है।
भैमी कुछ देर भ्रमण करती रही। पर ललाट पर तपते हुए सूर्य के आतप के कारण आगे जाने में समर्थ नहीं हुई। तब सूर्य को देखकर उसने कहा- हा ! देह को जलानेवाली किरणों के द्वारा हे सूर्य ! मुझे क्यों जलाते हो ? अगर नैषधि करुणारहित हो गये हैं, तो क्या तुम भी उसी तरह हो गये हो ?
राजा ने शीघ्र ही कहा- हे भैमी ! तूं पतिव्रता स्त्रीरत्न है। उस पापी पति का नाम बार-बार मत ले। उसके नाम के श्रवण मात्र से हम सभी परिषद कुशीलवाले हो जायेंगे ।
नल ने क्रोधित होकर कहा- राजा ! यह आपने अज्ञात रूप से क्या कह दिया । वह महाक्रूर नल मैं ही हूँ जिसने देवी को छोड़ा है।
राजा ने संभ्रम होकर कहा- तुम कौन हो ? कहो |
नल ने अपने आप से कहा-अहो ! विषाद से ग्रस्त होकर मैंने कैसे अपने आपको प्रकट कर दिया। प्रकट में कहा- मैं सूपकार दण्डिक हूँ।
राजा ने कहा-फिर तुमने ऐसा क्यों कहा कि मैं नल हूँ।
नल ने कहा- मेरे द्वारा इस प्रकार कहा गया या नहीं इस प्रकार नाट्यरस के आवेश से सुनने में कुछ संशय
है।
राजा ने कहा- निश्चय ही भ्रान्ति हुई है । अन्यथा कहाँ तो वह कामदेव के मूर्त रूप के समान नरेन्द्र नल और कहाँ यह सर्वांग से विकृत आकृति !
तब नल ने विचार किया कि दृष्टि सूर्य, युगान्त सूर्य या भवसूर्य से मैं अपने पापों को भस्म कर डालूं अन्यथा मैं खुद भस्म हो जाऊँ ।
तब पिंगल ने कहा- हे भद्रे ! अगर सूर्य की किरणें बाधित कर रही हैं, तो पास में ही सहकार निकुंज है, वह शीतल है, अतः वहाँ प्रविष्ट हो जायें ।
गन्धार ने आगे आकर कहा- देवी! इधर से आयें। इस प्रकार सभी चलने लगे। गन्धार वहाँ देखकर भय से लौट गया।
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