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सम्यक्त्व प्रकरणम्
भरत चक्री की कथा लोच नहीं किया। वे केश ऋषभदेवजी के चेहरे पर गाली के जैसे शोभायमान हो रहे थे। उसके बाद मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए संपूर्ण मनःपर्यायों का अवबोध करानेवाला मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ।
ऐसा कोई भी नहीं था, जिसके मन में प्रभु के दीक्षोत्सव को देखकर खुशी न हुई हो। केवल उनके अंतरंग ज्ञातिजन ही दुःखित थे। स्वामी को वंदन करके सभी देव अपने स्थान पर लौट गये। बाहुबली आदि भी सभी अपने-अपने नगर को चले गये। कच्छादि साधुओं के साथ स्वामी मौन होकर विचरने लगे। भिक्षा के लिए स्वामी जब घरों में जाते थे, तो भिक्षा से अनभिज्ञ लोग उन्हें रत्नादि देने के लिए थाल भर-भर कर लाते। पर प्रभु वापस लौट जाते। इस प्रकार भगवान् क्षुधा, पिपासा आदि परीषहों को सहन कर रहे थे।
उनके साथ के कच्छादि राजर्षि क्षुधादि के द्वारा क्लान्त होकर हमने प्रभु को पूर्व में पूछा नहीं, ऐसा विचार करके कहा गया-हमारे द्वारा भगवान् की चर्या पालना शक्य नहीं है। क्योंकि
को हि दन्तावलैः सार्द्धमिथुन् भक्षयितुं क्षमः। कौन व्यक्ति दांतों के द्वारा इक्षु खाने में समर्थ है?
अतः हम जब तक प्रभु नहीं बोलेंगे, तब तक वनवास करेंगे। भगवान् मौन का त्याग करेंगे तो हम पुनः इनका आश्रय ग्रहण करेंगे। इस प्रकार निश्चयकर वे सभी वनवासी होकर कन्दमूल फल आदि खाकर काल यापन करने लगे।
भगवान् ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की उस समय नमि-विनमि कहीं दूर गये हुए थे। भगवान् निःसंग है इस प्रकार नहीं जानते हुए राज्य की आशा से वे प्रभु के समीप आये। और उनकी सेवा करने लगे। भगवान् को नमस्कार करने आये धरणेन्द्र ने जब यह देखा, तो उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर नमि-विनमि को वैताढ्य का ऐश्वर्य देनेवाली विद्या दी।
उन दोनों ने प्रभु को नमस्कार कर विद्या सिद्ध की। फिर वैताढ्य पर्वत पर जाकर नगरी की रचना करके सदन में प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा की।
भगवान् को दीक्षा लिए लगभग एक वर्ष होने को आया, तभी गजपुर में श्रेयांसकुमार को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने दान देने की विधि जानी और इक्षुरस से प्रभु का पारणा कराया।
एक बार भगवान् विहार करते हुए तक्षशिला नगरी पधारे। रात्रि में नगर के बाहर ही प्रतिमा की तरह, स्तम्भ । तरह ध्यान में स्थिर हो गये। बाहबली भगवान को आया हआ जानकर प्रातः जब वन्दना करने के लिए आया तब तक भगवान वहां से अन्यत्र विहार कर चके थे। बाहबली अत्यन्त दुःखित हआ। सोचने लगा-धिक्कार है मझ अपुण्यशाली को! मेरे यहाँ कल्पवृक्ष खुद चलकर आया और मुझे ज्ञात ही नहीं हुआ। फिर जो भूमि भगवान् के चरण-स्पर्श से पवित्र हुई उस भूमि को नमस्कार करके बाहुबली ने वहाँ स्वर्ण-रत्नमय निर्मल धर्मचक्र का निर्माण किया। भगवान् की पादुका की वहाँ स्थापना करके स्वयं उसने तीन जगत् में आनंद को उत्पन्न करनेवाले महोत्सव को किया।
___ फिर अनार्य देशों में विचरण करके भगवान् अयोध्या पुरी में आये। वहाँ पुरिमताल में न्यग्रोध वृक्ष के मूल में हजार वर्ष के संयम-पालन के प्रभाव से फाल्गुन वदी ग्यारस के दिन तेले की तपस्या में उज्ज्वल केवलज्ञान को प्राप्त किया। तेज आंधी से भूमि रजरहित हो गयी। नैरयिकों ने भी क्षण भर के लिए (अन्तमुहूर्त तक) सुख का अनुभव किया। आसनों के कम्पायमान होने से सभी देव-देवेन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना की। जगत्प्रभु समवसरण में विराजे।
इधर भरत राजा के शस्त्रागार में उसी समय चक्ररत्न उत्पन्न होने की बधाई मिली। एक तरफ पिताश्री के
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