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नल दमयन्ती की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् किया। तुम मुझे खाते हुए स्पर्श करोगे। बस! यही एक कष्ट मेरे लिये मर्मवेधी है। राक्षस उसके वचनों को सुनकर उसके सत्त्व से विस्मित रह गया। उसने कहा-हे कल्याणी! मैं तुझसे प्रसन्न हुआ। बोलो मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?
भैमी ने कहा-यदि मुझ पर प्रसन्न हो और कुछ जानते हो, तो बताओ कि मेरा प्रिय से संगम कब होगा?
राक्षस ने विभङ्गज्ञान से जानकर कहा-प्रवास के दिन से पूरे बारह वर्ष बाद तुम्हें तुम्हारा पति मिलेगा। पिता के घर में रहते हुए बरसते हुए मेघ की तरह वह स्वयं ही तुम्हारे संगम के लिए आयगा। तुम जंगल में क्यों क्लेश को प्राप्त होती हो? मैं तुम्हें अपने हाथों से उठाकर क्षणमात्र में तुम्हारे पिता के घर पहुंचा देता हूँ।
उसने कहा-मैं किसी भी पर-पुरुष के साथ कहीं भी नहीं जाती। तुमने मेरे प्रिय का समागम बताया, इसके लिए मैं तुम्हारी आभारी हूँ। अतः अब कुछ भी नहीं बोलते हुए तुम अन्य कल्याणकारी पथ को प्रयाण करो। वह भी अपने मूल स्वरूप को प्रकट करके उस देवी को नमस्कार करता हुआ मुदित होकर चला गया।
दमयन्ती ने भी यह जानकर कि प्रिय का समागम निश्चित है, शीलरूपी नृप के अंगरक्षकों के समान अभिग्रह धारण किया-आभूषण, अंग-राग, ताम्बूल, तथा रंगे हुए वस्त्र धारण नहीं करूँगी। जब तक प्रिय का समागम नहीं होता, किसी भी प्रकार के विगय को भी ग्रहण नहीं करूँगी।
इस प्रकार अभिग्रह धारण करके पथ पर चलते हुए उसने एक गिरिकन्दरा को देखा। अत्यधिक वर्षा होने के कारण वह सती वहाँ महर्षि की तरह ठहर गयी। फिर उसने मन में निश्चित किया कि मेरे लिए यहाँ रहते हुए अरिहन्त बिम्ब की अर्चना के बिना फल का भोजन तो क्या, जल तक पीना भी श्रेष्ठ नहीं है। तब भैमी ने स्वयं मिट्टी से शांतिनाथ प्रभु का बिम्ब बनाया। त्रिसन्ध्या में झरे हुए फूलों से स्वयं पूजा करने लगी। ___वह सार्थवाह भी सती को सार्थ में नहीं देखकर चारों ओर से उसे खोजता हुआ उसी गिरिकन्दरा में आया। वहाँ उसने समाधिपूर्वक, श्री शांति प्रभु के बिम्ब की पूजा करती हुई सकुशल भैमी को देखा। उस क्षण वह द्वार पर ही द्वारपाल की तरह खड़ा हो गया और महासती के धर्मध्यान से ध्याये जानेवाले क्रिया कलापों को कौतुक से विस्तीर्ण हुई आँखों द्वारा देखने लगा। अर्चना के बाद महासती ने सार्थवाह को देखकर सुधासिक वाणी के द्वारा शीघ्र ही स्वागत करके उसके साथ बात-चीत की। उसके वार्तालाप को सुनकर कुछ दूरी पर रहे हुए तापस मेघ से बरसनेवाले जल के समान उसे पाने के लिए चातक की तरह आगे आये। मुद्गर के समान तीक्ष्ण धारा से मेघ बरस रहा था। विश्वम्भरा रूप स्त्रियों से अम्बुद रूप पुरुषों का संयोजन हो रहा था। लोखण्डी बाण के समान धारा से ताड़ित होते हुए तपस्वी किस दिशा में जाय इस प्रकार रणभग्न की तरह हो गये। उनको इस अवस्था में देखकर दयापूर्वक भैमी ने कहा-मत डरो। मत डरो। मैं वर्षा से तुम्हारी रक्षा करूँगी।
बरसात के उत्कर्ष को श्रृंखला में आबद्ध करने के लिए सती ने एक रेखा खींची। सतीव्रत के प्रभाव से वह रेखा परिवेष को प्राप्त होने के समान हो गयी। सती ने कहा-यदि मैं मन, वचन, काया से शीलवती हूँ तो बाहर ऋषि मण्डल के कुंड से बरसते हुए मेघ शान्त हो जाय। सती के ऐसा कहते ही सारा वातावरण इस प्रकार हो गया, मानो जल बरसा ही न हो। जल समूह से बहते हुए पत्थर स्थिर हो गये। आकाश की वृष्टि धारा से धुला हुआ गिरिराज चमकने लगा। श्रेणी के समान पृथ्वी स्निग्ध हो गयी। गड्डे जल से पूर्ण होकर चमकने लगे। माला के फुल जगह-जगह उत्पन्न हो गये।
उसके शील प्रभाव को देखकर सभी कहने लगे-इस प्रकार की गुरुतर शक्ति मनुष्य में संभव नहीं है।
वसन्त सार्थवाह ने पूछा-हे शुभे! तुम किस देव की आराधना करती हो? जिससे जंगल में निर्भीक हो? तब देवी ने सार्थवाह से कहा-मेरे देव अरिहन्त परमेश्वर हैं। मैं नित्य उन्हीं की आराधना करती हूँ। जिसके प्रभाव से मुझे कोई डर नहीं है। अरिहन्त धर्म सम्पूर्ण अहिंसा आदि धर्मों का आधार है। उसने अति प्रौद आचार्य की तरह
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