________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा शुद्ध मति से कहा। उसने भी उस धर्म को सुनकर लघुकर्म रूप से अर्थात् हलुकर्मी होने से ग्रहण किया। उसके लाभ से उसने अपने मनुष्य जन्म को कृत-कृत्य माना। तापसों ने भी उसके धर्म फल को स्वयं देखा। अतः आर्हत धर्म को स्वीकार किया। कहा भी है
धर्ममुत्तमे कस्य नादरः। उत्तम धर्म का आदर कौन नहीं करता? विवेकियों द्वारा अपने धर्म का त्याग करने में क्या अभिमान? अथवाप्राप्तखजूरखाद्यस्य यद्वा किं रोचते खलः।
खजूर रूपी खाद्य पदार्थ पाने के बाद तिलों द्वारा तेल निकालने के बाद बढ़ा हुआ तुष रूपी खल किसे भाता है?
सार्थवाह ने वहीं एक श्रेष्ठनगर बनाया। दमयन्ती को गुरु की तरह चाहता हुआ पर्युपासना करने लगा। पाँचसौ तापसों का संघ वहाँ प्रबुद्ध हुआ। अतः वह नगर पृथ्वी पर तापसपुर के नाम से विख्यात हुआ। सार्थपति ने कैलास पर्वत के समान महाकायवाला श्री शांतिनाथ भगवान् का चैत्य वहाँ बनवाया। सार्थवाह, अन्य व्यापारी तथा तापस आदि अर्हत् धर्म में रत होकर यथासुख वहाँ निवास करने लगे।
एक दिन मध्य रात्रि में भैमी ने उसी पर्वत के ऊपर सूर्य कृत प्रकाश रूपी दिव्य उद्योत देखा। नभ से विचरण करने वाले सुरासुर आदि को आते जाते देखा। उन्हें आकाश में पक्षियों की तरह चारों ओर व्याप्त देखा। दुन्दुभिनाद तथा देवों की मधुर ध्वनि से पुरवासी नींद से जागृत हुए और उस प्रकाश को देखकर संभ्रम होते हुए उन्मुखी भूत हुए। तब भैमी सार्थवाह तथा तापसों के साथ जानने की जिज्ञासा लिए पर्वत पर चढ़ी। वहाँ पर उन्होंने सुरासुरों के द्वारा सिंहकेसरी मुनि की केवलोत्पत्ति महिमा को करते हुए देखा। तब उन केवली मुनि को प्रदक्षिणा पूर्वक प्रणाम करके नायक के सामने सेवक की तरह मुनि के सामने बैठ गये। उन मुनि के गुरु यशोभद्रस्वामी वहाँ आये, तो शिष्य होते हुए भी केवली होने से उन्होंने उन्हें वंदना की।
सेव्यः शिष्योऽपि केवली। केवलज्ञानी शिष्य गुरु के लिए सेवनीय है।
ज्ञानी मुनि ने भव का खण्डन करने में पाण्डव के समान मोक्ष सुख की प्रतिनिधि रूप धर्मकथा आदि के द्वारा देशना दी-हे भव्यों! इस भव अरण्य में घूमते हुए सैकड़ों बार मनुष्य भव को प्राप्त करके धर्म-सामग्री को अब पाया है। गुरु के व्याख्यान के समुद्र में यथाश्रद्धा, यथा-शक्ति अपनी आत्मा प्रवेश कराओ। जिससे स्वकर्म के विवर से निकलकर मूल आत्म स्वरूप की ओर गमन किया जाय। __ भैमी ने जो उपदेश दिया, वह वैसा ही है या अन्यथारूप है-इस प्रकार कुलपति मन में विचार कर ही रहा था, तभी साधु महाराज ने उससे कहा-तुम मन में शंका मत लाओ। भैमी परमाहती है। इसकी वाणी से निकलते हुए श्रुत अथवा श्रुत के रहस्य अन्यथा नहीं हो सकते। रेखा रूपी कवच के द्वारा की गयी रक्षा सुदृष्ट एवं विश्वास का कारण है। उसके द्वारा हुंकार मात्र से ही सार्थपति की चोरों से रक्षा हुई। इसके पातिव्रत्य धर्म तथा धर्मनिष्ठा के प्रभाव से सूनशान अरण्य में भी इसके परिपार्श्व में देव चलते हैं।
इसी बीच कोई देवता सूर्य की तरह नभ को प्रकाशमान् बनाते हुए आकर साधु को नमस्कार करके भैमी को कहा-हे माता! मैं इस तपोवन में कुलपति का कर्पर नाम का शिष्य था जो ज्वाला के समान तेजपुंज से युक्त था। ये वन तपस्वी पंचाग्नि मुख तपस्या से भावित होते हुए भी वाणी द्वारा मुझसे जरा भी खुश नहीं थे। अतः अपमान से क्रोधित होकर सिंह जैसे गुफा से निकलता है, वैसे ही मैं तपोवन से निकल गया। अंधकारमय मार्ग पर आँखों
54