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सम्यक्त्व प्रकरणम्
भरत चक्री की कथा एकदिन उसने सुना कि प्रभु अष्टापद पर्वत पर पधारे हैं। चिरकाल से दर्शन के लिए उत्कण्ठित भरत ने वहाँ जाकर प्रभु को प्रणाम करके सुन्दरी को संयम ग्रहण करवाया। भरत के अयोध्यापुरी लौटने पर आयुधागार में नियुक्त एक प्रहरी ने आकर कहा कि चक्ररत्न चक्रशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है। आपके भाई आपकी आज्ञा के बिना ही राज्य कर रहे हैं। तब चक्रवर्ती ने शीघ्र ही अपने दूतों द्वारा उन्हें कहलवाया-अगर राज्य करने की इच्छा है तो मेरे अधीन रहना होगा। अट्ठानवें भाई अहंकार युक्त होकर बोले-हमें राज्य पिताश्री ने दिया है। फिर भरत की अधीनता क्यों स्वीकार करें? हे दूत! तुम चले जाओ। हम भरत के साथ मित्रता या शत्रुता, पिता से पूछकर ही तय करेंगे। तब वे अट्ठानवे ही भाई शीघ्र ही पिता से पूछने के लिए अष्टापद पर्वत पर गये। ऋषभदेव ने अङ्गारक के आख्यान से उन सभी को प्रतिबोधित किया। उन्होंने राज्य का त्यागकर व्रत को स्वीकार किया। शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त किया। दूत से यह सारा वृत्तान्त जानकर भरत क्षेत्र के अधिपति भरत ने अग्नि के तेजांशु की तरह उनके राज्य को ग्रहण कर लिया।
लघु भाइयों के राज्य हरण को जानकर भरत के आये हुए दूत को बाहुबली ने कहा-अरे! बृहत्कुक्षि के समान तुम्हारे राजा की वृत्ति नहीं भरती, जो कि अतिलोभ से भाइयों के राज्य को भी छीन रहा है। क्या उन्हीं के समान मेरा राज्य भी छीनने की इच्छा है? लेकिन याद रखना कि
मरीचान्यप्यधीर्वाञ्च्छत्यत्तुं चणकलीलया। चने के समान वह मूर्ख मिर्ची को खाना चाहता है।
अगर उसकी इच्छा मेरी राज्य लेने की है, तो मैं आता हूँ। युद्ध में सत्जय प्राप्त करने में मैं समर्थ हूँ। ऐसा कहकर बाहुबली ने दूत को निकाल कर भेज दिया। भरत को आया जानकर बाहुबली भी अपनी संपूर्ण सेना के साथ आगे आया। उन दोनों बलियों का संग्राम बारह वर्ष तक चला। तब मनुष्यों व देवों ने प्रार्थना की कि दृष्टि आदि के द्वारा केवल भरत बाहुबली में ही युद्ध हो। व्यर्थ जनसंहार से क्या लाभ? सभी दृष्टि आदि युद्ध में बाहुबली ने भरत को पराजित किया। तब भरत ने बाहुबली पर चक्ररत्न चलाया। चक्ररत्न भी बाहुबली की प्रदक्षिणा करके लौट आया, क्योंकि सगोत्रियों पर प्रभाव दिखाने में चक्ररत्न भी समर्थ नहीं है। यह जानकर तथा प्रतिज्ञा भ्रष्ट भरत को देखकर बाहुबली ने विचार किया
धिग्राजतां यत्र भातृघातोऽपि चिन्त्यते। धिक्कार है ऐसे राज्य को जहाँ भातृ-घात का विचार किया जाता है।
इसलिए विरक्त होते हुए बाहुबली ने वहीं स्वयं ही दीक्षा अंगीकार कर ली। उनकी इस क्रिया को देखकर देवों ने पुष्पवृष्टि की। बाहुबली मुनि ने विचार किया कि अगर पिता के पास जाऊँगा, तो मुझसे पूर्व दीक्षित छोटे भाइयों के सामने मुझे झुकना पड़ेगा। अतः केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे वहीं कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। भरत ने बाहुबली को उस स्थिति में देखकर लज्जित होते हुए अपनी गर्दा की। उन्हें नमस्कार करके उनके पुत्र सोमयशा को उनके राज्यासन पर आरूद किया।
भरत चक्री अयोध्या को लौट गये। बाहुबली एक वर्ष तक ऐसे ही खड़े रहे। तब प्रभु ऋषभ ने ब्राह्मी-सुंदरी के द्वारा बाहुबली को प्रतिबोधित कराया। प्रतिबुद्ध होकर प्रभु के समीप जाने के लिए बाहुबली मुनि ने जैसे ही कदम उठाया, उन्हें केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार उनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
एक बार अष्टापद पर्वत पर प्रभु को नमस्कार करके भरत चक्री ने पूछा-स्वामी! आप जैसे और मेरे जैसे इस भरत क्षेत्र पर और कितने होंगे? तब स्वामी ने कहा-२३ तीर्थंकर व ११ चक्रवर्ती और होंगे। तब पुनः भरत ने पूछा कि क्या इस सभा में कोई भावी तीर्थंकर की आत्मा है? तब भगवान् ने कहा-हाँ, है। भरत का पुत्र मरीचि जो इस
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