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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा यह संपूर्ण लोक में प्रचलित है। अतः उसकी भार्या माता के समान हुई। यह हठ से आरब्ध होकर तुम्हें भस्मसात् कर देगी। क्योंकि
सतीनां कुपितानां हि न किञ्चिदपि दुःकरम्। सतियों के कुपित होने पर कुछ भी दुष्कर नहीं है।
अतः महासती को कुपित करके इस प्रकार अनर्थ के भाजन मत बनो। अपितु उत्साहपूर्वक इसे पति के पीछे-पीछे जाने दो। हे कूबर! पुर, ग्राम, नगर आदि तुम्हें सब कुछ दे दिया है। इतना ही पर्याप्त है। कम से कम सारथी सहित व पाथेय सहित रथ नल को दे दो।
अमात्यों के इस प्रकार कहने पर व्यवहार कुशल नहीं होने पर भी कूबर ने वैसा ही किया। क्योंकिस्यात् क्रूरोऽपि ग्रहः किञ्चिच्छुभदः शुभयोगतः। कदाचित् शुभयोग से क्रूर ग्रह भी कुछ शुभता प्रदान कर देते हैं।
नल ने कहा-भुजबल से अर्जित लक्ष्मी को मैंने क्रीड़ा क्रीड़ा में छोड़ दिया, तो फिर रथ की स्पृहा मैं क्यों करूँ?
नागरिकों ने कहा-स्वामी! हम आपके चरणों की धूलि हैं। हम कूबर द्वारा निषेध किये जाने पर भी आपके साथ आयेंगे। जो कुछ भी आपने इस राज्य के लिए किया, उस राजा को कैसे छोड़ सकते हैं? शायद! यहाँ जो कोई अन्य राजा होगा, वह भी आपकी तरह हमारा पालन करेगा। इसलिए हे देव! हम अभी आपके पास इसलिए नहीं आये हैं। भार्या, भृत्य, मित्र व अमात्य भैमि की तरह सद्गामी होते हैं। पर राज-सुता, जिसने कभी सूर्य को न देखा हो, वह राज-वल्लभा, मृदु अंगी कैसे पथिकी भाव को प्राप्त करेगी? अर्थात् वह कैसे पैदल चल पायगी? ललाट पर तपते हुए सूर्य से कढ़ाई की तरह तपती हुई रेत के अणुओं पर जाते हुए इसके सुकोमल चरण कैसे उस भूमि का उल्लंघन कर पायेंगे? प्रसन्न होकर हे स्वामी! रथ ग्रहणकर हम पर अनुग्रह कीजिए। जिससे देवी दमयन्ती मार्ग को सुखपूर्वक पार कर सके।
तब नल दमयन्ती के साथ उस रथ पर आरूढ़ होकर महाद्युति के साथ चल पड़े। संपत्ति और विपत्ति में महान् पुरुष ही अचलसत्त्व बलि होते हैं।
एक वस्त्र को धारण किये भैमी दमयन्ती को देखकर पुरीजन नव-मेघों की तरह अश्रुधारा बहाने लगे। तब पीछे-पीछे आते हुए लोगों से संयम-पिपासु की तरह ममतारहित कठोर होकर निषध-अधिपति ने कहा-हमारे अपराधों को आप क्षमा करें। अब हम जाते हैं। आप सभी धैर्य धारण करें। स्वामी के दुःख से आर्त बने हुए उन नगरजनों ने कहा-हा! दैव! यह तूने क्या किया? इस प्रकार के दुःख दायक तुम पृथ्वी में क्यों नहीं विलीन हो गये? जगत् में इस नल के प्रति सब कुछ अनुकूल था। तुम इस महान् आत्मा के लिए प्रतिकूल हो गये। ठीक ही कहा है कि दुष्ट में तो दुष्टता ही होती है। हे दुर्दैव! कूबर भी तुम्हारे द्वारा ही अधिष्ठित है, वरना पितृतुल्य भाई के साथ क्या कोई दुश्मनी कर सकता है?
नल ने कहा-भाग्य का शोक मनाना अब बंद करो। हे लोगों! स्नेह को तजकर हृदय को निर्दयी बनाकर अपने दुःख को शिथिल करो। यह अन्य किसी का नहीं, अपितु मेरे कर्मों का ही दोष है। सभी जन अपने शुभाशुभ कर्मों के फल का ही अनुभव करते हैं। महान् आत्माएँ संपत्ति पाने के लिए ही विपत्ति को प्राप्त होते हैं। कहा भी है
तेजोवृद्धयै न किं हेम्नः पतनं ज्वलितानले। सोना अग्नि में तपने पर क्या अतिशय तेज को प्राप्त नहीं होता? नल के इस प्रकार कहने पर सभी नगरजन एक साथ अश्रुधारा को बहाने लगे। भूमि पर उनके अश्रुओं की