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नल दमयन्ती की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् होता हुआ पर्वतों के बीच अन्तध्यान हो गया। तब भैमी के लिए राजा नल ने शय्या-क्रीड़ा के वास्ते वृक्ष के सुकोमल पत्तों द्वारा पलंग की रचना की। फिर दमयन्ती से कहा-हे देवी! यह पर्ण-शय्या अति कोमल है। इस पर निद्राविनोद कर के अपने मार्ग श्रम को दूर करो। देवी ने कहा-नाथ! मुझे पास ही किसी गाँव की संभावना दिखायी देती है। क्योंकि नजदीक से ही गायों के रम्भाने का स्वर सुनायी पड़ रहा है। अतः हमें श्मशान के समान इस अरण्य को छोड़कर वहाँ जाना चाहिए। जिससे घर में सोने के समान वहाँ निर्भीकता से सुखपूर्वक सोया जाए। नल ने कहाइस कातर अरण्य में कोई गाँव नहीं है। किन्तु तापसों के आश्रम के समान मिथ्यादर्शनमय है। क्या दूध का विनाश करने के लिए कालिमा का समूह पर्याप्त नहीं है? अतः ऐसा मत कहो। तुम यहीं सुखपूर्वक सोओ। मैं स्वयं अंतःपुर के रक्षक की तरह तुम्हारा पहरेदार बनूँगा। तब अपने आधे वस्त्र को बिस्तर की तरह बिछाकर उस पर्ण शय्या को . अर्धभरत के महीपति ने ढक दिया। पंच नमस्कार का स्मरण करके देव व गुरु को क्रम से नमस्कार करके कमल के उदर में रही हुई भंगी की तरह वह भीम-सुता सो गयी।
वैदर्भी के निद्राधीन हो जाने पर नल को चिंता हुई-अहो! मेरा कैसा व्यसन! मैंने मन, वचन व दृष्टिपथ की उपेक्षा की। मुझ जुआरी का राज्य भ्रंश अपने ही अनुज द्वारा हुआ। मेरा व्यसन मुझे इतने ऊँचे शिखर पर ले गया कि मुझे श्वसुर गृह का आश्रय लेना पड़ेगा। हो सकता है व्यसन से आर्त बने मनुष्यों की ससुराल में ही गति हो। निश्चय ही व्यसनी मनुष्य दुर्गति में गिरनेवाले नर रूपी पशु है। अगर मुझे मुँह उठाकर चलना है, तो इस वल्लभा को छोड़कर मैं अवधूत की तरह अकेला अज्ञात चर्या द्वारा भ्रमण करूँगा। अपने शील के अनुभाव से इसका कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। क्योंकि
शीलं सतीनां वर्मेव सर्वाङ्गरक्षणक्षमम्। सतियों का शील कवच की तरह सर्वाङ्ग करने में समर्थ है।
इस समय यह श्रम की थकान से गाद निद्रा में सोयी हुई है। अतः चला जाता हूँ। पर मेरा अर्ध वस्त्र उसके नीचे बिछाया हआ है। अतः निर्दयतापर्वक प्रेमबंधन रूपी इस वस्त्र के पल्ले को तलवार द्वारा काट डालँ। अतः हाथ में तलवार लेकर बोला-अपनी सन्निधि का फल दिखाने में कपाल की तरह तम क्यों विलंब कर रही हो? सदयी मेरे हृदय द्वारा प्रेम ग्रन्थि छिन्न की जा रही है, फिर तुम तो निर्दयी हो। वस्त्र छेदन करने में करुणा कैसी? हस्त को सहायक जानकर उसमें तलवार ग्रहण करके दक्षिणहाथ को फैलाकर दया से आर्द्र होकर मानो नल ने अपने हाथ से कहा-हे दक्षिण हाथ! तुम व्यर्थ ही दाक्षिण हो। क्योंकि दक्षिणता रहित होकर तुमने अपने शिरोरत्न से यह अकार्य कराया है। यदि द्यूतकार मुझ द्वारा यह अकृत्य नहीं किया जाता, तो तुम कृपाण को धारण करके इस अंशुक को दो भागों में विभक्त नहीं करते।
तब अपने पट्टांशुक के दो भाग करके भैमी के पट्टांचल पर अपने रक्त से राजा ने संदेश लिखा-इस वृक्ष से दक्षिण की तरफ का मार्ग विदर्भ को जाता है एवं उत्तर का मार्ग कोशल की ओर जाता है। अतः दोनों मार्ग-पिता अथवा श्वसुर गृह में से जहाँ तुम्हें उचित लगे, वहाँ चली जाना। मैं स्वजनों के समीप अब नहीं जाऊँगा। जब तुम्हारा वरण करने आया, तब कितना समृद्धिवान् था। अब इस दशा में वहाँ जाते हुए क्या मुझे लज्जा नहीं आयगी? इस प्रकार के अक्षरों को लिखकर खेदविह्वल निःशब्द रोते हुए भरे हुए नयनों से गद्गद् होते हुए नल ने कहा-हे आम्र वृक्ष! हे चातकों! हे अर्जुनों! मेरे द्वारा अकार्य किये जाने के कारण को तुम सब जानते हो। मैं यह सब खुशी से नहीं कर रहा हूँ। कहाँ कूबर और नल की द्यूत खेलने की इच्छा। कहाँ कुबर की पाशों द्वारा जय! कहाँ वैदर्भी का परित्याग! यह सभी विधि द्वारा रचा गया विधान है।
इस प्रकार कहकर देवी के श्रमयुक्त मुखकमल को देखकर विचार किया-कभी भी सूर्य को नहीं देखनेवाली
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