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नल दमयन्ती की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
धारा से बरसात सी होने लगी।
तब नल ने कहा-आप सज्जनों द्वारा यह पामरों का आचरण क्यों किया जा रहा है? हमारे प्रस्थान में अमंगल बननेवाले इस रुदन को बंद करो। हमारे द्वारा नये-नये देश-दर्शन के उत्साह में सहायक बनो। दुःख मत करो। तभी हम सुखपूर्वक जा पायेंगे। राजा के इस प्रकार समझाने पर वे सभी नगर को लौट गये। पर लौटे सिर्फ काया से ही. उनका मन तो अपने नप का अनसरण कर रहा था। ___आगे जाते हुए नल ने आकाश में छाये हुए छत्र-दण्ड की तरह ५०० हाथ ऊँचा एक स्तम्भ देखा। राज्य हाथ से निकल जाने के गम को किंचित भी नहीं वेदते हुए अपने ओज के द्वारा राणा ने पद्मनाल की तरह उसे उखाड़कर पुनः वहीं उसे आरोपित कर दिया, मानो कीर्ति-स्तम्भ की तरह अपनी आत्मा में महाओज का प्रकाश आरोपित किया हो।
___ उसे इस प्रकार करते हुए ऊर्जस्वल नल को देखकर पुरजनों ने कहा-अहो! इस अवस्था में भी इस श्रेष्ठ पुरुष की शक्ति अस्त नहीं हुई। ___ काफी समय पूर्व जब नल व कूबर इस उद्यान में क्रीड़ारत थे, तब विवेक को धारण करनेवाले अतीन्द्रिय ज्ञानी एक मुनि वहाँ आये थे। उन्होंने कहा था कि-पूर्वभव में सुसाधु को खीर का दान करने से नल अर्धभरत का स्वामी होगा। जो इस खड़े हुए महास्तम्भ को चलित कर देगा, वह भी अवश्य ही अर्धभरत का स्वामी बनेगा। जब उन दोनों ने उस स्तम्भ को चलायमान कर दिया, तो मुनि ने कहा-ये दोनों ही अर्धभरत के स्वामी होंगे। यही एक कारण था कि नल के जीवित रहते हुए भी कोशलपुरी में कूबर राजा हुआ। मुनियों की वाणी में विसंवाद को स्थान नहीं होता। नल पुनः कोशल का राजा होगा क्योंकि इसने फिर से स्तम्भ को हिलाया है।
___ इस प्रकार लोगों की बातचीत को सुनते हुए नल ने कोशल देश को छोड़ दिया। फिर उसने अपनी पत्नी से पूछा कि अब हमें कहाँ जाना चाहिए? क्योंकि
स्थानं ह्यननुसंधाय न जाल्मोऽपि प्रवर्तते। स्थान का अनुसंधान किये बिना मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता।
भीम राजा की अङ्गजा ने विचार करके कहा-हे देव! आपके साथ मैं विश्व की शोभा रूप कुण्डिनपुर जाना चाहती हूँ। तब राजा ने सारथी को तुरन्त ही वेगपूर्वक कुण्डिनपुर पत्तन जाने के लिए आदेश दिया। नल ने महाटवी में प्रवेश किया। युद्ध के लिए सदा तत्पर भील शिकारी आदि से व्याप्त वह महाटवी थी। वह अटवी प्रत्यक्ष राक्षसी के समान अत्यन्त भयप्रदा थी। राक्षसी के श्याम वस्त्रों के समान शेरों की धूत्कार पूत्कार की आवाजें ही उस अटवी के वस्त्र थे। भयंकर लाल-लाल एवं तेजस्वी नेत्रों के समान सर्पो की फणा पर रहे हुए रत्नों की ज्योति ही अटवी की आंखें थी। लम्बे काले एवं ऊंचे केशों के समान घनघोर बादल ही उसके केश थे। राक्षसी की लटकती लाललाल लम्बी जीभ से भयंकर मुखाकृति के समान देदीप्यमान दावानल की ज्वालाएँ ही उसकी जीभ और उससे भयंकर वन की मुखाकृति थी। हाथ में रही हुई कैंची के समान सिंह के द्वारा मारे गये सूअरों की दाद ही कैंची थी। गले और मस्तक पर रही कपाल की मालाओं के समान महाभयंकर हिंस्र पशुओं से मारे हुए मुसाफिरों के कपाल ही उसकी मालाएँ थी। वहाँ कदाई के निचले हिस्से की तरह काले यमदूतों के समान भीलों को धनुष बाण हाथ में लिए हुए देखा। वहाँ सर्प विचरण कर रहे थे। कुछ भील भूत-प्रवेश किये हुए की तरह नृत्य कर रहे थे। कोई श्रृंग को तलवार की तरह श्रृंगी के साथ बजा रहा था। कोई धारा बरसाते हुए मेघ के समान तीरों की वर्षा कर रहा था। कोई भुजा स्फोट के द्वारा तरङ्ग स्फोट का विभ्रम पैदा कर रहा था। बादलों की ओट से सूर्य की तरह नल को उन लोगों ने घेर लिया। नल भी रथ से उतरकर हाथी के समान उल्लसित करनेवाले भिल्लों को तलवार के आक्रमण
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