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भरत चक्री की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् समय परीषह से पराजित होकर स्वबुद्धि से कल्पित त्रिदण्डी वेष को धारण किये हुए है', वही महावीर स्वामी नाम का चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा। तब भरत ने मरीचि के त्रिदण्डी वेष को नहीं, बल्कि उसके अन्दर रही हुई भावी तीर्थंकर की आत्मा को नमस्कार किया। मरिचि अत्यन्त हर्षित होकर अपनी भुजाओं को फड़काते हुए अति गर्वित होकर बोला-अहो! मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है! समग्र कुलों की शोभारूप मेरा कुल है। मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं और मैं अंतिम तीर्थंकर बनूँगा। अहो! मेरा कुल धन्य है।
इस प्रकार अभिमान करके उसने नीच गोत्र कर्म निकाचित बन्ध कर लिया। कपिल को भी भगवा वेशधारियों में भी धर्म है-इस प्रकार कहकर उत्सूत्र प्ररूपणा से उसका (मरिचि का) कर्म गुरुतम हो गया। अपने समान मूढों की सहाय के लिए दीक्षित करके वह कपिल दर्शन प्रवर्तित करता रहा। तभी से कपिल दर्शन प्रवृत्त हुआ।
एक बार प्रभु के समवसरण में भरत ने शक्र से कहा-मुझे अपने मूल रूप का दर्शन कराओ। मुझे उत्सुकता है। शक्र ने कहा-मेरे उस रूप को मनुष्य नहीं सह पायेंगे। लेकिन आपकी इच्छा व्यर्थ न जाय इसलिए मेरी अंगुली को मूल रूप में देखें। भरत चक्री ने सोचा-मेरा कहा हुआ शक्र ने भी विफल नहीं किया। उसको देखने के बाद भरत ने शक्र महोत्सव शक्र स्तंभ बनवाकर प्रारंभ किया। __एक बार आहार सामग्री से पूर्ण ५०० गाडियों के द्वारा भरत ने परिवार सहित भगवान् को आहार के लिए निमंत्रित किया। भगवान् ने कहा-यह राजपिण्ड है तथा आधाकर्म नामक दोष से युक्त है। अतः रोगियों के लिए अपथ्य की तरह यह हमारे योग्य नहीं है। दुःखित होते हुए भरतचक्री ने कहा-मैं भाइयों के राज्य का हरण करनेवाला क्षुल्लक हूँ। पर यह आहार पंक्तिबद्ध पूज्यों के लिए है, न कि मेरे लिए। फिर यह राजपिण्ड कैसे हुआ। आप भी अपंक्तिबद्ध है अतः आपके निमित्त भी नहीं है। भगवान् ने कहा-दुःख मत करो। यह व्यवस्था तो रोगियों की है। हम वीतरागियों के लिए तो कुछ भी उष्ण या शीतल नहीं है। भरत ने पूछा-यह अन्नादि किसके लिए बनाया गया है? ऐसा पूछने पर गाड़ीवान ने झूठ कहा कि यह गुणाधिकों के लिए दान देने के लिए भक्तिपूर्वक बनाया गया है। तब भरत ने कहा-मुनियों को छोड़कर दूसरा कौन मुझसे अधिक गुणवाला है? अथवा देशविरति गुणाधिक है, इसलिए उन्हें दे दो। मुमुक्षुओं के लिए मेरे घर में कुछ भी कल्पनीय नहीं होगा। इसलिए धर्मशाला में रहनेवालों को बुलाकर दे दो।
भरत के वचनों को धारण करके धर्मशाला में तथा श्रावकों को सदा (साधर्मिकों को) भोजन दिया जाने लगा। ताकि धर्म में तत्पर मनुष्य कृषि आदि पाप कार्य न करें।
तब उनके द्वारा भोजन किये जाने पर भी दूसरों की अधिकता हो जाने पर अत्यधिक निर्विग्न होकर रसोइये ने राजा को बताया। तब राजा ने छः छः महीने तक सम्यक प्रकार से परीक्षा करके जानने के लिए काकिणी रत्न के द्वारा उनके देह पर तीन रेखा कर दी। आप इंद्रियों के द्वारा जिते गये हो। भय बढ़ रहा है अतः आप किसीको मत मारो-मत मारो इस प्रकार वे भरत के द्वारा कही हुई बात अंतपुर के द्वार पर राजा को बोले।
यह सुनकर भरत ने विचार किया-मुझे विषयों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। किसी देहधारी की हत्या न हो, जिससे उनका भय न बदे। इस प्रकार विचारकर भरत संवेग को प्राप्त हुआ। दुष्कर्म का शोधन करनेवाले ध्यान में प्रतिक्षण प्रवृत्त हुआ। उस भरत चक्री ने आर्य वेदों को बनाकर लगातार पढ़ा। जिससे राजपूज्य होने से अन्य जन भी उसे पढ़ने लगे। मा-हन्-मा-हन् बोलनेवालों के द्वारा पढ़े जाने से वे श्रावक क्रम से ब्राह्मण कहे जाने लगे। 1. किसी कथा में भरत ने पूछा और भगवान ने प्रथम वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती और भरत में अंतिम तीर्थंकर होने का कहा था, ऐसा लिखा
है। 2. किसी कथा में तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं प्रथम वासुदेव ये तीनों नाम लेकर कुल मद से नाचने का लिखा है।
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