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भरत चक्री की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् केवलज्ञान की बधाई, दूसरी तरफ चक्ररत्न की उत्पत्ति। पहले किसकी अर्चा करूँ? भरत सोच में पड़ गया। फिर उसने विचार किया कि चक्र तो इस लोक में सौख्य प्रदाता है, जबकि पिता का केवलज्ञान प्राप्ति रूप चक्र सिद्धिसुख को देनेवाला है। अतः प्रभु की पूजा के लिए अपने अनुचरों को आदेश दिया। स्वयं भरत राजा अपनी दादी मरुदेवी के पास स्वामी तीर्थंकर की कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति की बधाई देने पहुंचे।
मरुदेवी माता जिस दिन से ऋषभ ने प्रव्रज्या ली थी, उसी दिन से पुत्र के दुःख को दिन-रात मन में धारण किये हुए थी। वह न सुख से खाती थी, न सोती थी। उनका रुदन थकने का नाम ही नहीं लेता था। नित्य बहती हुई आँखें चमक विहीन, नीली, निस्तेज हो गयीं थीं। भरत ने उनको वैसी स्थिति में देखकर कहा-हे माँ! क्यों दुःख करती हो? माता, तेरे पुत्र के ऐश्वर्य जैसा अन्य किसी का ऐश्वर्य नहीं है। अतः हे देवी! आओ। अपने पुत्र की अद्भुत संपदा को देखो। उसको देखने मात्र से आपको निर्वृत्ति पैदा होगी। इस प्रकार कहकर दादी को हाथी के हौदे पर बैठाकर भक्तिपूर्वक स्वयं ही उन पर छत्र धारणकर राजा भरत प्रभु दर्शन को रवाना हुए। समवसरण के नजदीक आकर भरत ने माता मरुदेवी से कहा-हे मात! अपने पुत्र के ऐश्वर्य को देखो। तुमल गीत-नाद सुनो।
यह सब सुनते ही मरुदेवी की आँखों से आनन्दाश्रु प्रवाहित होने लगे। नदी के पूर में जैसे कीचड़ बह जाता है, वैसे ही आँसुओं के आवेग से उनकी दृष्टि का कालापन भी दूर हो गया। पुत्र की अत्यन्त अद्भुत श्री को देखकर उनके क्षण सुधा कुण्ड में डूबे हुए सुखमय हो गये। उन्होंने विचार किया कि इतने समय तक पुत्र-विरह के आर्तध्यान में अवतिष्ठ होकर मैं व्यर्थ ही खेद का भाजन बनी। पुत्र की इस प्रकार की श्री का ज्ञान किसीने भी मुझे नहीं कराया। मैं यहाँ तक आयी हूँ। फिर भी यह मुझे बुला नहीं रहा है। मेरे सामने भी नहीं देखता है। अतः यहाँ के संबंध स्वार्थमय हैं। यहाँ कोई किसी का स्वजन नहीं है। इस प्रकार का ध्यान करते हुए क्षणभर में ही मोह को दूर करके भाव से संयम प्राप्त करके मरुदेवी ने केवलज्ञान पाया। हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे ही अन्तकृत् केवली के रूप में इस अवसर्पिणी काल में सबसे पहले सिद्धत्व का वरण किया।
ऋषभदेव की केवलज्ञान उत्पत्ति की महिमा करके देव मरुदेवी माता के शरीर को क्षीर-सागर में ले गये।
भरत ने प्रभु के समवसरण में प्रवेश करके सपरिवार वन्दना नमस्कार करके देशना सुनी। प्रभु के पास धर्म की व्याख्या सुनकर भरत राजा के ५०० पुत्र व ७०० पोतों ने दीक्षा ग्रहण की। उनके मध्य पुण्डरीक आदि ८४ मुनियों को उत्पाद, निगम, ध्रौव्य रूप से प्रभु ने त्रिपदी प्रदान की। देवेन्द्र द्वारा वासचूर्ण थाल में भरकर लाने पर भगवंत ने उन श्रेष्ठ मुनियों पर वासक्षेप किये। उन्हें उसी समय गणधर लब्धि प्राप्त हुई। और उन सबने द्वादशांगी की रचना की। ब्राह्मी को दीक्षा देकर भगवान ने उसे प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया। दीक्षा लेने की भावनावाली सुन्दरी को भरत ने रोक लिया। कच्छ-महाकच्छ आदि सभी तापसों ने भी वापस आकर प्रभु के हाथों से दीक्षा ग्रहण की। भरत आदि श्रावक हुए। सुन्दरी आदि श्राविकाएँ हुई। गोमुख यक्ष हुआ। चक्रेश्वरी शासन देवी हुई।
फिर उत्पन्न हुए चक्र की पूजा करके भरतेश्वर ने छः खण्डों पर साठ हजार वर्ष में विजय पायी। फिर चक्रवर्ती का अभिषेक हआ। ३२ हजार राजा दास हए। चक्र छत्र आदि चौदह रत्न उत्पन्न हुए। ६४ हजार रानियाँ हुई। शंखादि नव निधियाँ हुई। आदेश को तुरन्त पूरा करनेवाले सोलह हजार यक्ष हुए। ८४ लाख हाथी हुए। ८४ लाख घोड़े हुए। इस प्रकार चक्रवर्ती पद की ऋद्धि भोगते हुए अपने अधिपत्य पृथ्वी पर निवास क ते हए भरत ने छःखंड साधकर आने के बाद सुन्दरी की जर्जर काया को देखकर उसकी दासियों से पूछा कि सुन्दरी की यह दशा कैसे हुई। दासियों ने कहा-देव! आपके घर में श्री की अति प्रचुरता है। कोई कमी नहीं है। पर नमक रहित आहारादि से आयम्बिल व्रत की आराधना करते हुए इनके शरीर की यह स्थिति हुई है। उसके इस प्रकार के भावों को जानकर भरत अत्यधिक प्रमुदित हुआ।
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