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सम्यक्त्व प्रकरणम्
नल दमयन्ती की कथा __ अहो! अच्छा वरण किया। इस प्रकार बार-बार बोलते हुए कोलाहल हुआ। किसी दुराचारी ने प्रतिशब्द किया। तभी कृष्णराज ने म्यान से तलवार खींचकर नल को कहा-हे सुभग! मान का मर्दन करनेवाले को शूर मानते हो या अन्य को? दमयन्ती को ले जाने के लिए नल योग्य भर्ता नहीं है। मैं ही सीता के राम की तरह इसका पति
हूँ।
नल ने भी उसे आक्षेप करके कहा-हे कुलपांसन्! पिशाच वात से मूद की तरह क्यों विकथन करते हो? दुर्भाग्य से तुम्हारा अभाग्य है कि दमयन्ती ने तुम्हारा वरण नहीं किया। दुःख है कि तुम सन्ताप करते हो। उसे पाने के लिए कोई तपस्या क्यों नहीं करते? इस समय उसको चाहनेवाला तूं पापी है। यह परस्त्री है। धर्म से तो रहित हो ही, क्या तुम कुल से भी रहित हो? मुझे तुम्हें कुछ शिक्षा देनी चाहिए। इस प्रकार हाथ में तलवार लहराते हुए भूमि पर पद प्रहार करके जलते हुए कोपानल से नल खड़ा हुआ। दोनों ने सेना को सजाकर रोष से ग्रस्त मनवालों की तरह परस्पर युद्ध शुरु कर दिया।
तब दमयन्ती ने विचार किया-हाय! मैं कितनी मन्दभागिनी हूँ, जिससे कि मेरे निमित्त से यह जीवसंहार उपस्थित हुआ। अगर अरिहन्त प्रभु में मेरी निश्चल भक्ति है, तो मेरे प्रिय जयश्री का वरण करें व अरति उपशमित हो। इस प्रकार कहकर के झारी में से जल-बिन्दुओं को लेकर तीन बार कृष्णराजा पर छिड़काव किया। उस जल के स्पर्श मात्र से वह बुझे हुए अंगारे के समान हो गया। हाथ में रही हुई तलवार के अग्रभाग के स्पर्श मात्र से वृक्ष से गिरते हुए पके हुए पत्ते की तरह गिर गया।
दमयन्ती इस वृत्त से लोकोत्तर महिमा से शोभित हुई। क्या किसी देवी ने मानुषी रूप को धारण किया है? तेज रहित होकर कृष्णराजा ने ऐसा विचार किया। दमयन्ती सामान्य नहीं है और न ही नलराजा सामान्य है। तब प्रशान्तचित्त होकर कृष्णराजा ने क्षमायाचना की। नल ने भी उनका सम्मान किया। क्योंकि
सन्तो हि सुकृतिप्रिया। सज्जनों को अच्छे कार्य प्रिय होते हैं।
नल को महर्षि की तरह शाप व अनुग्रह में समर्थ जानकर विदर्भ राजा ने आनन्दित होकर उसके साथ अपनी सुता का विवाह किया। हस्ती, अश्व, रथ, रत्नादि नल को पहेरामणी (दहेज) में दिया। अन्य नृपों का सम्मान करके उन्हें अपने-अपने राज्यों की ओर बिदा किया। वहाँ कुछ दिन रहकर नल भी रवाना हुआ। क्योंकि
तिष्ठन्ति श्वसुरावासे चिरं नार्यो न पूरुषाः। श्वसुर गृह में चिरकाल तक नारियाँ रहती हैं, पुरुष नहीं।
सत्कार करके कुछ दूर तक भीमराजा भी नल के साथ चले। जाती हुई दमयन्ती को माता ने प्रेम से शिक्षा दी-हे पुत्री! परनिन्दा मत करना। विनीत होना। प्रिय बोलना। विपत्ति आने पर भी साये की तरह पति का साथ न छोड़ना। परम ऐश्वर्य को प्राप्त करके स्वप्न में भी गर्व मत करना। अपने निष्कलंक शील को प्राण त्यागने पर भी न छोड़ना। उन शिक्षाओं को धारण करके माता-पिता की आज्ञा से रथ पर आरूढ़ होकर अपने पति के उत्संग में बैठकर वह रवाना हुई। उसके साथ ही दमयन्ती की तरह सर्वराज की जयश्री को प्राप्त करके चतुरंगिणी सेना भी चलने को उद्यत हुई। सेना के चलने से उनके पाँवों से उठनेवाली धूलि से धूसरित सूर्य की छवि ढंक गयी। मानों वह स्नान करने के लिए दूसरे समुद्र में चला गया हो। चारों ओर से जगत् को देखने के आलोक को खा जानेवाला अंधेरा पृथ्वी पर प्रसरित होता चला जा रहा था। तब दिशाएँ तम के द्वारा कवलित की तरह हो गयीं। जैसे अदृश्यीकरण मन्त्र से वस्तुएँ गायब हो जाती हैं, वैसे ही दिशाएँ भी अंधेरे में लुप्त हो गयीं। ऊँबड़-खाबड़ भूमि में मार्ग दिखायी नहीं पड़ रहा था। जैसे कि ध्यानलीन आँखों से कुछ भी अलक्षित रहता है। इतना सबकुछ होते हुए
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