________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
भरत चक्री की कथा रुचक पर्वत की दक्षिण दिशा से आयीं। आदिदेव तथा उनकी माता को नमस्कार करके हाथों में स्वर्ण झारियाँ लेकर दक्षिण दिशा में खड़ी हो गयीं।
____ इलादेवी, 'सुरादेवी, 'पृथिवी, पद्मवती, 'एकनासा, 'नवमिका, "भद्रा तथा “सीता नाम की दिशाकुमारियाँ रुचक पर्वत के पश्चिम से आकर हाथ में पंखा लेकर स्वामी व मरुदेवी को नमस्कार करके पश्चिम में खड़ी हो गयीं।
अलम्बुसा, 'मित्रकेशी, 'पुण्डरीका, 'वारुणी, 'हासा, 'सर्वप्रभा, "श्री, 'ही - ये आठ दिशाकुमारियाँ रुचक पर्वत की उत्तरी दिशा से आकर जिन व जिनेश्वर की जननी को नमस्कार करके हाथों में चंवर लेकर प्रणिपात करके मोद-ध्वनि करते हुए उत्तर दिशा में खड़ी हो गयीं।
चित्रा, चित्रकनका, 'शतेरा तथा 'सौत्रामणि ये चार दिशाकुमारियाँ रुचक पर्वत की विदिशा से आकर हाथों में दीप लेकर विदिशा में स्थित हो गयीं। ___रूपा, रूपासिका, 'सुरूपा, रूपकावती-ये चार दिशाकुमारियाँ रुचक द्वीप की ऊपरी दिशा से आकर प्रभु की नाल को निश्चित स्थान पर आरोपित करके अखिल सूतिकर्म किया। प्रभु व उनकी माता को देवदुष्य वस्त्रअलंकार आदि से विभूषित किया। उन दोनों को रक्षापोटली बाँधकर जिनेश के पास आयीं। चकमक पत्थर को बजाकर कहा कि आपकी आयु पर्वत के समान दीर्घ होवे। अर्हत् भक्ति करते हुए प्रीतिपूर्वक सुंदर गान गाकर छप्पन दिशाकुमारियों ने उनके गुण व स्तुति गीत गाये।
फिर शक्रेन्द्र का आसन चलायमान होने पर अवधिज्ञान से अरिहन्त के जन्म को जानकर अपनी पर्षदा सहित इन्द्र वहाँ पर आया। भगवान् को [पंच रूप से] ग्रहण करके स्वर्ण-सुमेरु पर्वत के शीखर पर ले जाकर अत्यन्त उत्सवपूर्वक प्रभु का जन्मोत्सव मनाया। उसके बाद माता के पास में प्रभु को रखकर वे नन्दीश्वर द्वीप गये। वहाँ अष्टाह्निका पर्व मनाकर वे अपने-अपने स्थान पर लौट गये।
___ माता ने बालक के गर्भ में आते ही प्रथम स्वप्न में वृषभ देखा। अतः माता-पिता ने बालक का नामकरण ऋषभ किया। उसके साथ जन्मी युगल-बालिका का नाम सुमंगला रखा। शक्र के द्वारा जिनेश्वर के अंगुठे में अमृत का सिंचन किया गया उससे उनकी शैशवावस्था पूर्ण हुई। किसी समय बचपन में शक्र के हाथ से इक्षु ग्रहण करने से शक्रेन्द्र ने उनके वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश प्रतिष्ठित किया।
__ अंगुष्ठ पान की वय बीत जाने के बाद अन्य जिनेश्वर तो मर्त्यलोक के आहार का भक्षण करते हैं, पर प्रभु ऋषभ तो देव प्रदत्त-आहार से वृद्धि को प्राप्त हुए।
एक बार एक बाल-युगल किसी वृक्ष के नीचे गया। काक-ताली न्याय से उस वृक्ष का फल बालक के मस्तक पर गिरने से उस युगल में से बालक की मृत्यु हो गयी। यह बाला तो निरालम्ब हो गयी है, अतः इसे किसी दूसरे को अर्पित करने में कोई भय नहीं है। वह भी अगर ऋषभ को दे दी जावे-ऐसा उसके पिता ने विचार किया।
और नाभि राजा को दी। उन्होंने भी उसे स्वीकारा। फिर कुछ समय पश्चात् त्रिजगत्पिता के विवाह के समय को जानकर सौधर्मेन्द्र देवलोक से सपरिवार आया। अवसर्पिणीकाल में पहली बार संपूर्ण विधिपूर्वक सुमंगला व सुनन्दा-दोनों कन्याओं का विवाह ऋषभ के साथ किया गया। तब से लगाकर सर्वत्र पाणिग्रहण की स्थिति प्रचलित हुई। लोक में व्यवहारिक सत्क्रियाओं को कौन नहीं करता!
शाता वेदनीय कर्म भी भोगे बिना क्षय को प्राप्त नहीं होता। अतः अनासक्त होते हुए भी जगत्पति ने उन दोनों के साथ विलास-सुख भोगा।
अन्य किसी समय महादेवी समंगला ने चौदह महास्वप्न देखकर गर्भ धारण किया। अवधि पूर्ण होने पर भरत पुत्र के साथ ब्राह्मी को जन्म दिया। जो वर्षा ऋतु के बादलों के बीच सौदामिनी से युक्त था। सुनन्दा महादेवी
32