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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् सम्पूर्ण राजकुल में सुवर्णगुलिका के नाम से विख्यात हुई। __उसने विचार किया कि यदि मेरे अनुरूप पति नहीं मिलता है, तो मेरा यह रूप वृथा है। रति के कामदेव की तरह मेरे अनुरूप यहाँ कौन है? उदायन आदि सभी राजा मेरे लिये पित तुल्य हैं। दूसरे राजा तो: ना को कर देनेवाले कृषक की तरह हैं। अतः मालवाधीश चण्डप्रद्योत ही रम्भा के महाऋद्धि वाले कुबेर की तरह मेरा पति हो। इस प्रकार विचार करती हुई पुरुष के समागम की इच्छा वाली वह द्वितीय गुलिका को खाकर वासवदत्ता के अंतःपुर में चली गयी। गुलिका की अधिष्ठात्री देवी ने राजा प्रद्योत के आगे उसके रूप का वर्णन किया। स्त्रीलोलुप उस राजा ने भी उसी क्षण से उसको मन में बैठाकर उसे लाने के लिए अपने दूत को भेजा। उस सुवर्णगुलिका ने दूत से कहा कि उन्हें मुझसे काम है, तो स्वयं क्यों नहीं आये? क्या यह प्रेमी की कठोरता नहीं है? दूत ने जाकर राजा को उसके द्वारा कही गयी बात बतायी। राजा भी उसके सुधासिक्त वचनों से रंजित हो गया।
तब राजा गिरियों के इन्द्र रूप जंगम अनिलगिरि पर सवार होकर रात्रि में वहाँ आया। क्यों न आये? दुःकरं किं हि कामिनाम्। कामियों के लिए क्या दुष्कर है?
वह भी राजा प्रद्योत का स्मरण करती हुई मूर्त्तिमान होकर बैठी थी। अचानक राजा को सामने पाकर उसकी कञ्चकी रोमांचित होकर फूलने लगी। प्रद्योत भी पृथ्वी पर अवतरित देवी की तरह उसे देखकर बोला-आओ देवी! शीघ्र ही मेरे पुर की ओर प्रस्थान करें। तब दासी ने कहा-मैं स्वामी द्वारा जीवन्त स्वामीजी की अर्चा के लिए छोड़ी गयी हूँ। अतः आप उस मूर्ति के प्रतिनिधि रूप तत्त्व को लेकर आयें। जिससे वह यहाँ स्थापित करके इसे मैं ग्रहण करके चली आऊँ। उस प्रतिमा के प्रतिरूप को उकेर कर वह प्रतिरूप वहाँ रखो। ताकि मैं मूल प्रतिमा ग्रहण कर सकुँ। क्षणभर राजा दासी के साथ राग-रंग रमण करके रात्रि में ही वेगपूर्वक वहाँ से निकल गया। शीघ्र ही राजा प्रद्योत उज्जयिनी पहुँचा। लेप के द्वारा वैसी ही प्रतिमा की रचना की। उस प्रतिमा को लेकर चण्डप्रद्योत पहले के समान ही रात्रि में वहाँ आया। उस दासी को शीघ्र ही वह प्रतिमा समर्पित की। वह भी उस प्रतिमा को चैत्य में अर्चनाकर बिठाकर वहाँ रही हुई मूल प्रतिमा को लेकर नृप के समीप आयी। राजा भी पवन वेग से दासी तथा प्रतिमा को लेकर दोनों को हाथी पर बैठाकर मन के वेग के समान वेग द्वारा अवन्ती की ओर चल पड़ा।
उदायन राजा ने जैसे ही प्रातः होते ही अपने नयनाम्बुज खोले, हस्ति मण्डलीक के स्वामी ने राजा को विदित कराया कि हे स्वामिन्! आर्हती दीक्षा को स्वीकार करने के समान सभी हाथी भावपूर्वक निर्मद हो गये हैं। राजा भी उस हस्ती-मण्डलीक स्वामी द्वारा निर्मदत्व के कारण को कहने से हंसकर विचार करने लगा कि कोई तत्त्व की तरह निर्मल योगी है। तभी किसी ने आकर बताया कि राजन्! रात्रि में प्रद्योत अनिलगिरि हाथी पर सवार होकर आया था। वह कुब्जा दासी को लेकर चला गया।
तब राजा ने कहा-निश्चय ही प्रद्योत के हाथी की गन्ध से सिंहनाद की तरह हाथियों का मद सूखता हुआ दूर हो गया है। लेकिन देखो! चैत्य प्रतिमा हमारी है या नहीं? उस दास ने लौटकर बताया कि प्रतिमा यहीं है।
कुछ समय बाद जब राजा पूजा करने के लिए प्रतिमा के पास पहुँचा, तो तुषारापात से मुरझाये हुए कमलों की बेल की तरह म्लान पुष्पों की माला धारण किये हुए प्रतिमा को देखा। राजा ने विचार किया कि क्या भविष्य में कुछ अनिष्ट होनेवाला है? क्योंकि इससे पूर्व इस प्रतिमा की माला के फूल कभी नहीं मुरझाए। तब राजा ने संपूर्ण देव-द्रव्यों को बिखेर कर देखा, तो सोचा-निश्चय ही यह वह मूल प्रतिमा नहीं है। निश्चय ही उस चोर प्रद्योत ने कुब्जिका दासी के साथ देवाधिदेव की प्रतिमा को भी चुरा लिया है। लेकिन मेरी दिव्य प्रतिमा को चुराकर आखिर वह कहाँ जायगा? क्योंकि
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