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सम्यक्त्व प्रकरणम्
सम्यक्त्व का स्वरूप
जीव वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा।
इस प्रकार जैसे उदायन राजा ने अत्यधिक कष्टपूर्वक यह सम्यक्त्व रत्न प्राप्त किया, वैसे ही अन्य देहियों के लिए भी इसे प्राप्त करना प्रायः दुर्लभ ही है ।।४।।
इस प्रकार सम्यक्त्व की दुर्लभता में उदाहरण रूप यह उदायन की कथा पूर्ण हुई। अब सम्यक्त्व के स्वरूप को कहते हैं
देवो' धम्मो मग्गो' साहू तत्ताणि चेय समत्त। तविवरीयं मिच्छत्तदंसणं देसियं समए ॥५॥ अर्थात् १ देव, २ धर्म, ३ मार्ग, ४ साधु और ५ तत्त्व - ये सम्यग्भाव हैं। शुद्धतम आत्मा के परिणाम रूप सम्यक्त्व है। यहाँ उपचार से देवादि तत्त्वों को ही सम्यक्त्व का हेतु होने से सम्यक्त्व कहा गया है। उससे विपरीत अर्थात् देवादि तत्त्वों के श्रद्धान से विपरीत मिथ्यात्वदर्शन कहा गया है। समए अर्थात् सिद्धान्त में। यह द्वार गाथा का अर्थ हुआ।।५।।
(१) देवतत्त्व अब 'यथोद्देशं निर्देश के अनुसार देवतत्त्व का वर्णन करते हैं -
चउतीस अइसयजुओ अट्ठमहापडिहेरकयसोहो। अट्ठदसदोसरहिओ सो देयो नत्थि संदेहो ॥६॥
अर्थात् चौंतीस अतिशय से युक्त, अष्ट महाप्रातिहार्य से शोभित, अट्ठारह दोष से रहित ही देव है। इसमें कोई संदेह नहीं।।६।।
अब अतिशयों के विभाग को स्तव द्वार से कहते हैंचउरो जम्मप्पभिई इक्कारसकम्मसंखए जाए। नव दस य देवजणिए चउतीसं अइसए यंदे ॥७॥
अर्थात् चार अतिशय जन्म से होते हैं, ११ अतिशय घाती कर्म के क्षय से प्राप्त होते हैं। बाकी १९ अतिशय देवकृत होते हैं। वे अतिशय इस प्रकार हैं(१) शरीर प्रस्वेद रहित होता है। (२) श्वासोच्छ्वास पद्म कमल के समान सुगंधित होता है। (३) लोही, मांस गाय के दूध के समान श्वेत होते हैं। (४) आहार-निहार अदृश्य होता है।
ये चार अतिशय जन्म कृत होते हैं। (१) योजन मात्र में असंख्य देवादि समा जाते हैं। योजनगामी वाणी ध्वनित होती है। (२) संपूर्ण सभा अपनी-अपनी भाषा में उपदेश श्रवण करती है। (३) भामण्डल के पृष्ठ भाग में मार्तण्ड मण्डल होता है। (४) एक-एक दिशा में सो योजन तक (कहीं-कहीं ५०० योजन का भी जिक्र आता है। चारों दिशा एवं ऊपर
नीचे मिलाकर) महामारी नहीं होती। (५) दुर्भिक्ष नहीं होता। (६) युद्ध-विग्रह नहीं होता। (७) जन्म वैर, जाति वैर शांत हो जाते हैं।
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