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सम्यक्त्व प्रकरणम्
जिनभवन बनाने की विधि पडिबुज्झिसंति इहं दट्टण जिणिंद बिंबमकलंक। अन्ने वि भव्वसत्ता केहिं ति तओ वर धम्मं ॥२॥ ता एवं मे वित्तं जमित्थमुवओगमेइ अणवरयं। इय चिंतापरिवाडिया सासयवुड्डी य मुक्खफला ॥३॥
(पञ्चवस्तु ११२६,११२७,११२८ सप्तम पञ्चाशके २६,२७,२८) । ___ यहाँ आने का कारण पूछेगे तो कहेंगे कि कृतपुण्य, गुणरत्ननिधि, महासत्त्वशाली भगवान को वंदना करने के निमित्त से हम साधु आये हैं। तथा जिनेश के बिम्ब को निष्कलंक देखकर ही प्रबोध को प्राप्त होंगे। अन्य भी सत्त्व वाले भवी अपने श्रेष्ठ धर्म को छोड़कर जिनधर्म को ग्रहण करेंगे। तथा मेरा धन निरन्तर इसी उपयोग में आवे-इस प्रकार विचार करके शाश्वत वद्धि रूप मोक्ष फल को प्राप्त करेंगे।॥१७॥
यत्ना का मतलब जल आदि को छानकर काम में लेना बताया गया है। अब जिन भवन बनवाने के अधिकारी का एवं आज्ञा का महत्त्व बताते हैं।
अहिगारिणा इमं खलु कारेयव्वं विवज्जए दोसो।
आणाभंगाउ च्चिय धम्मो आणाइ पडिबद्धो ॥१८॥ इस गाथा में 'खलु' एवं अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि वही अर्थ संगत है। 'अधिकारिणी' शब्द का वक्ष्यमाण रूप होने से अधिकारियों द्वारा ही जिन-सदन करवाना चाहिए। इसके विपरीत अनधिकारियों द्वारा कराये जाने पर दोष लगता है। किस कारण से? तो कहा जाता है कि आज्ञा भङ्ग होने से। यहाँ आज्ञा जिनागम रूप है। उसका भंग होने से अन्यथा करण होता है। आज्ञा भंग होने से दोष कैसे लगता है-इसके हेतु को कहते हैं कि धर्म आज्ञा से बंधा हुआ स्वाधीन होता है।।१८।।
इसी को विशेष रूप से कहते हैंतित्थगराणामूलं नियमा धम्मस्स तीइ वाघाए।
किं धम्मो किमहम्मो मूढा नेयं वियारंति ॥१९॥ तीर्थंकरों के मूल नियम व धर्म को व्याघात करने के द्वारा क्या धर्म होता है? या अधर्म होता है? इस तरह वे मूद विचार नहीं करते।।१९।।
अब बुद्धिमानों द्वारा जो ज्ञेय है, उसे कहते हैंआराहणाइ तीए पुन्नं पायं विराहणाए उ। एयं धम्मरहस्सं विन्नेयं बुद्धिमंतेहिं ॥२०॥
इसका अर्थ यह है कि आराधना पुण्य का कारण है, विराधना पाप का कारण है। इस प्रकार बुद्धिमानों के द्वारा धर्म का रहस्य जाना जाता है। इस अर्थ में एक दृष्टान्त कहा जाता है
क्षितिप्रतिष्ठित नामका एक नगर था। जहाँ रहनेवाले लोग प्रतिमा की तरह अभिवन्दित थे। वहाँ जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसने शत्रु पक्ष में रही हुई कालिमा को अपने यश की धवलता से उच्छेद कर दिया था। उसकी रत्नावली नामकी मुख्य पटरानी अनुपम श्री से युक्त थी। तीन जगत के प्रार्थनीय सुखों की वह निधान
थी।
एक बार राजा अपनी सभा में बैठा हुआ राज्य कार्यों में अपनी आज्ञानुसार निर्णय कर रहा था। उसी समय उद्यानपालक ने आकर मधुर स्वर में ज्ञात कराया कि संपूर्ण आम्रवृक्ष आम्रमंजरियों से आवेष्टित हो गये हैं। ऋतुराज वसन्त उद्यान की भूमि पर सर्वत्र छा गया है और वह आपके संग का इच्छुक है। यह सुनकर महाराज ने
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