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आज्ञा की आराधना पर दृष्टांत
सम्यक्त्व प्रकरणम् उस निगृहितों को देखकर कोई बोला-हाय धिक्कार है इस प्रकार की नीति को! धिक्कार है राजा की अविवेकिता को। हाथी के बच्चों के समान, कामदेवों के समान रूपवाले, तेजस्वी स्वर्ण के समान अंगवाले, समुद्र में खिले हुए कमल की तरह नेत्रवाले, जो लावण्य सुधा के सिन्धु हैं, जो कदली-गर्भ के समान कोमल हैं, हाय! हाय! यमराज की तरह क्रूर आत्मावाले राजा ने इनका निग्रह किया है। इनके प्रति निग्रहिवाक्य कहने में क्या राजा की जिह्वा इनकी माताओं की तरह बांझ नहीं हुई?
दूसरे व्यक्ति ने उनको इस स्थिति में देखकर कहा-अहो! इनकी अज्ञानता है कि इन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया। महाऋद्धिवाले कुल में उत्पन्न होकर, नवयौवन से सुसंपन्न, मनोरथ से भरे हुए ये बिना सुख का स्वाद लिये ही रह गये। भोगकाल उपस्थित होने पर भी वैभव द्वारा भोगयोग्य होने पर भी अपने दुष्कर्मों द्वारा भोग-वैभव से बाहर कर दिये गये। राजा की भी अज्ञानता है कि इन्हें इतना बड़ा दण्ड दिया। शायद इससे मनुष्य के कष्ट से कितनी प्रमाणता है यह ज्ञात हो। इनके आज्ञा भंग करने से क्या राजा के अंग-उपांग या राज्यांग कुछ भी भंग हुआ? हे दुर्दैव! कहो, क्या कहा जाये? न राग मिला, न कैद मिली। अगर द्रव्य दण्डादि के द्वारा इन्हें दण्डित किया जाता, तो क्या राजा का धन इनकी तरह जीवित नहीं रहता।
तीसरे शुचिचित्त वाले व्यक्ति के द्वारा कहा गया- राजा ने ठीक ही किया, जो इन्हें दण्डित किया। लोगों में अन्य लोगों के प्रति अन्याय करने की प्रवृत्ति ही पैदा नहीं होगी। जवान स्न्च्छंदचारी नहीं होंगे। राजाज्ञा का विलोप करनेवाला ऐसा ही सहन करेगा। आज्ञा को माननेवाला कामदेव से भी ज्यादा सुख सम्पत्ति प्राप्त करेगा। राजा के इस प्रकार के दण्डविधान को देखकर भयभीत मनुष्य आज से ही साँप की तरह कुपित राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे।
उन-उन व्यक्तियों के द्वारा कहा हुआ सभी जासूस के द्वारा राजा के सामने रखा गया। उनका कहा हुआ संपूर्ण यथातथ्य निवेदन किया गया।
तब राजा ने अपराधियों को निरपराधी बताने वाले प्रथम व्यक्ति को बुलाकर युक्तिपूर्वक उसे अपराधी सिद्ध करके उन अपराधियों के पास भेज दिया।
दूसरे व्यक्ति को बुलाकर उसे देशत्याग का दण्ड दिया क्योंकि उसने अपराधियों के दण्ड को अनुचित बताया।
तीसरे व्यक्ति को बुलाकर राजा ने उसका वस्त्रदान आदि कुशल वस्तुओं से सत्कार करके विसर्जन किया।
यहाँ पर उपनय किया गया है कि जैसे राजा ही तीर्थंकर है। नीःराग होने से वह स्वामी परम निर्वृत्ती में अभिनन्दित होते हैं। भक्त व अभक्त मनुष्यों के अनुग्रह व निग्रह को धारण नहीं करते हैं। वे कर्मदोष को स्वयं ही प्राप्त करते हैं। जैसे शीतकाल में मनुष्यों के लिए आग आराधक होती है, पर शीत ऋतु चले जाने पर वही आग विराधक होकर बाधक बन जाती है। अथवा जैसे-चिन्तामणी रत्न की सेवा-पूजा करके मनुष्य चिन्तित वस्तु प्राप्त कर लेता है, पर उन रत्न की अवज्ञा करनेवाला व्यक्ति कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता। और भी
जिनाज्ञा का भंग करनेवाले श्रीमन्त के पुत्रों की तरह संसार के अन्त रूप महादण्ड को प्राप्त होते हैं। जो अपने सम्बन्धियों के साथ अज्ञानता से पक्षपात करते हैं, उससे वे भी उन्हीं की गति के गामी होते हैं। जो भग्नजिनाज्ञा वालों में माध्यस्थ रूप से रहते हैं, वे अपने सर्वस्व धर्म की हानि करके भव अटवी में भ्रमण करते हैं। जो जिनाज्ञा का भंग करते हैं-वे अच्छे वेष-आडम्बरों आदि के द्वारा कुष्ठ से दूषित व्यक्ति की तरह दूर से ही त्याग दिये जाते हैं। वे तपस्वी दीर्घकाल तक संसार में अनन्त दण्डों को प्राप्त करते हैं, उन्हें पिशाच की तरह दुर्गति ग्रसित करती है। जिनाज्ञा के लोपी अपने पाप से गिर जाते हैं, उस क्रिया से विपराङ्मुख होकर उन्हीं का शोक करते हैं।
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