________________
सम्यक्त्व प्रकरणम्
देवाधिदेव का स्वरूप अन्नाणकोहमयमाणलोहमायारई य अरई यो निद्दासोय अलियययण चोरियामत्सरभयाइं ॥९॥ पाणिवह पेमकीडापसंगहासा य जस्स इइ दोसा।
अट्ठारस वि पणट्ठा नमामि देवाहिदेयं तं ॥१०॥
१ अज्ञानमय यथावस्थित बोध, २ क्रोध-कोप, ३ मद-जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप, श्रुत के द्वारा आठ प्रकार का है। ४ मान-दुरभिनिवेश पर चढ़ा हुआ।५ लोभ-गृद्धता। ६ माया-शठता। ७ रति-इष्ट शब्दादि विषय प्राप्त होने पर मन की खुशी। ८ अरति-रति से विपरीत जानना। ९ निद्रा। १० शोक। ११ अलीकवचन-झूठ बोलना। १२ चोरी। १३ मत्सर-द्वेष, परगुण में असहिष्णुता। १४ भय-इहलोक, परलोक, आदान, अकस्मात्, आजीविका, मरण, श्लाघा-इस प्रकार सात प्रकार का है। १५ प्राणिवध-प्राणियों का मन, वचन, काया से अतिपात करना। १६ प्रेम-स्नेह, राग। १७ क्रीड़ा-प्रसंग-अब्रह्म का सेवन। १८ हास-विस्मय आदि में मुख को चौड़ा करना। चः समुच्चय अर्थ में है। यहाँ प्राणातिपात आदि चार ही मुख्य रूप से कहे गये हैं। परिग्रह नहीं कहा गया है। वह गृद्धि स्वभाव रूप होने से लोभ में समाहित हो गया है। शेष स्पष्ट ही है।।९-१०।।
इस प्रकार का देवों का स्वरूप होता है। इसके विपरीत अदेव होते हैं। ऐसी निश्चित मतिवाले जीवों के लिए देवाधिदेव के नामों को कहते हैं
तस्स पुणो नामाइं तिन्नि बहत्थाई समयभणियाई।
अरिहंतो अरहंतो अरुहंतो भावणीयाइं ॥११॥
अर्थात् उनके पुनः तीन नाम हैं। जो यथार्थ सिद्धांत में कहे गये हैं। अरिहंत, अरहंत तथा अरुहंत इस प्रकार इनकी भावना करनी।।११।।
अब नामों की यर्थाथता को कहते हैं
अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूयं होड़ सबजीयाणं। तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेण युच्चंति ॥१२॥
अर्थात् आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के लिए शत्रु रूप होते हैं। उन कर्म रूपी अरि को हनने के कारण वे अरिहंत कहे जाते हैं।।१२।।
अरहंति वंदणनमंसणाई अरहंति पूयसक्कार। सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण युच्चंति ॥१३॥
अर्हन्ति-पूजा, सत्कार आदि में, वन्दन-स्तवनादि में, नमस्करण-प्रणाम करने में। यहाँ पूजा वस्त्र-माला आदि के द्वारा अर्चा करने को कहा है। सत्कार-अभ्युत्थान आदि के द्वारा होता है। सिद्धि गमन की योग्यता-यह प्रतीति अध्याहार होने से सिद्धि गमन के प्रति योग्यता होने से ही उसे अरहंत कहा जाता है। बार-बार क्रिया का उपादान अतिशय को ख्यायित करता है।।१३।। तथा
अच्वंत दर्बुमि बीयंमि न अंकुरो जहा होइ। दडंमि कम्मबीए न रुहइ भयअंकुरो वि तहा ॥१४॥ जिस प्रकार अत्यन्त जले हुए बीज से अंकुर पैदा नहीं होता, उसी प्रकार दग्ध कर्मबीज वाले को पुनर्भव प्राप्त नहीं होता है-यह तात्पर्य है।।१४।।
अब इन्हीं भगवान् के सर्वथा आराध्यरूप उपदेश को कहते हैं
24
-