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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् __उदायन द्वारा स्थापित वहाँ केशी नाम का राजा था। काष्ठ में लगे हुए घून की तरह उसका राज्य अमात्यों द्वारा ग्रस लिया गया था। केशी के द्वारा सब कुछ जानते हुए भी किसीसे कुछ नहीं कहा गया। अपने मामा को वहाँ आया हुआ जानकर केशी अत्यन्त प्रसन्न हुआ। पर सचिव उदायन को आया हुआ जानकर शंकित हो गये। वह सब कुछ जानकर हमारा रहस्य उगल देगा। हमारा वृत्त जानकर यह केशी हम पर शासन करेगा। हमारी वृत्ति के अनुरूप ही यह हमारा सम्मान करेगा। इस प्रकार आत्मभीरु वे पापी नृप को ऊपर चढ़ाने के लिए बोले-राजन्! आपके मामा स्पष्ट रूप से तप से निर्विग्न हो गये हैं। तभी तो यह राज्य कण्डरीक की तरह आपको दे दिया है। अब वापस ये अपना राज्य लेने आये हैं। आप भ्रम में न रहें। हमारा विश्वास करें। केशी ने कहा-क्या कहते हो? मामा राज्य लेने आये हैं। राम के आदेश से भरत की तरह मैं यह राज्य मामा को दे दूंगा। तब उन्होंने कहा-राज्य दे दीजिए। पर वह पुण्य से मिलता है, अन्य किसी कारण से नहीं। अन्यथा अपने पुत्र को छोड़कर भानजे को राज्य कौन देता है? हे देव! यह तो राज्य धर्म है कि पिता से भी राज्य छीनकर ग्रहण किया जाता है। तो फिर उनके दिये हुए राज्य को क्यों छोड़ा जाय?
इस प्रकार उन धूर्तों द्वारा भ्रमित किया हुआ वह अपने मामा का वैरी बन गया। उसने सचिवों से पूछा कि अब क्या करूँ? सचिवों ने कहा-विष दे दीजिए। तब एक पशु पालकर उसके दूध से निर्मित दही में विष मिलाकर मुनि के लिए रखा। मूद ने उनके लिए वैसा किया। अहो! कैसी विचित्रता!
संसारे किमसंभवि। संसार में क्या असंभव है? ।
अपर भवनों में भिक्षा के लिए जाने पर उन दुरमात्यों द्वारा वहाँ पर भी जहरमिश्रित दही करवाया गया। वहोरने पर धर्मरक्षक देवता ने उस विषमिश्रित दही का हरण करके मुनि से कहा कि आप यहाँ दही ग्रहण न करें, क्योंकि आपको विष मिलाकर दिया जायगा। दही का त्याग करने पर साधु की व्याधि दिनोदिन बढ़ने लगी। बिना बुझी हुई अग्नि की तरह बिना औषधि के व्याधि बढ़ती ही गयी। उस व्याधि की प्रशान्ति के लिए साधु ने पुनः दही ग्रहण किया। वहाँ पर भी देवता ने तीन बार विष का अपहार किया। अगले दिन प्रमादवश वह प्रभावती देव नहीं आया। और राजर्षि ने सविष दही को खा लिया। पर चरमशरीरी होने के कारण उस विष से मृत्यु तो नहीं हुई, लेकिन ताप अत्यधिक बढ़ गया। उस विषताप से अपना अंतिम समय जानकर मुनि ने अनशन धारण कर लिया। ऐसी स्थिति में कौन बुद्धिमान स्वार्थ में मोहित होता है। राजर्षि उदायन एक मास का अनशन पालकर केवलज्ञान प्राप्त करके अंत में सिद्ध गति को प्राप्त हुए। वह प्रभावती देव भी मुनि के निर्वाण के बाद वहाँ आया। काल रात्रि की तरह उस पापी राजा आदि पर कुपित हुआ। क्रोधान्ध होकर उस देव ने संपूर्ण पुरी पर बिना स्खलित हुए लगातार धूल की वृष्टि करते हुए उसे धूल से एकसार बना दिया।
उस नगर में मुनि का शय्यातर कुम्भकार अति भक्तिवाला था। केवल उसे अभय देकर वीतभयपुर से सिनपल्ली ले जाकर वहाँ का राजा बना दिया, तथा उस पल्ली का नाम कुम्भकारकृत पुर रखा।
इधर अभीचिकुमार भी विदेश में भी स्वदेश की तरह कूणिक के द्वारा गौरव सहित सुखपूर्वक सत्कारपूर्वक रखा गया। वह भी श्रमणोपासक होकर अर्हत् धर्म के तत्त्वों को जाननेवाला बना। विशुद्ध मति के द्वारा गृहिधर्म का पालन करता था। धार्मिक क्रियाओं द्वारा आत्मा को निर्मल बनाते हुए विचरता था। पर पिता द्वारा राज्य नहीं दिये जाने के आशय को वह नहीं भूल पाया। अन्त में कामदेवादि श्रावकों की तरह भोग-भोगकर अंत में पन्द्रह दिन की तपस्या में स्थिर होकर संलेखना धारण की। पर पिता के प्रति मत्सर-भाव की आलोचना न करने के कारण शुभ कर्मों को निष्फल करके वह असुर के रूप में पैदा हुआ। वहाँ अंतः पल्योपम की स्थिति को भोगकर अभीचि का
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