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सम्यक्त्व प्रकरणम्
उदायन राजा की कथा शीघ्र ही प्रतिष्ठा करके, विभूषित करके, भक्तिपूर्वक अर्चना करके, नमस्कार करके, मस्तक नमाते हुए नये-नये स्तवनों से भक्ति की। गोशीर्षचन्दन के द्वारा स्वयं मूर्ति के खाली स्थानों को भरकर उस अर्हत् प्रतिमा को महानिधि की तरह रखा। और प्रतिदिन उसकी पूजा अर्चना करता रहा। फिर एक दिन उस मूर्ति को लेकर आकाश मार्ग से आते हुए विद्युन्माली ने समुद्र में एक विशाल जहाज को देखा। वह जहाज घूमर नृत्य करनेवाले अभ्यस्तों की तरह गोल-गोल घूम रहा था अथवा घोड़े की तरह भूमि के गोल-गोल चक्कर लगा रहा था। उस जहाज में आन्तरिक चिन्ता से आतुर अपने-अपने अभीष्ट देवताओं का स्मरण करते हुए लोगों को मृत्यु की इच्छा करते हुए देखा। किसी दैवीय उत्पात से घूमते हुए इस जहाज को ६ माह से अधिक हो गया था। अवधिज्ञान से सारी स्थिति जानकर जहाजों में स्थित एक वणिक् से पूछा-कहाँ जाओगे? तब उस देव को देखकर हाथ जोड़कर मस्तक से लगाकर दीनतापूर्वक उन्होंने कहा-हे प्रभो! अन्धे कुँए में घूमते हुए हम लोगों का उद्धार करो। भाग्यवशात् आप ही हमारे कुलदेव के समान आज दिखायी दिये हैं। सिन्धुसौवीर कोटीरपुर वीतभयनगर की सन्निधि में हमारे घर हमें शीघ्र ही पहुँचाओ। हे देव! हम पर प्रसन्न होओ।
तब वह व्यन्तर देव बोला-मत डरो! मत डरो! मैं शीघ्र ही तुम सबको क्षणभर में ही अपने-अपने इच्छित स्थान पर पहुँचा दूंगा। तब उत्पात करनेवाले उस देव को डराकर व्यंतर देव ने उसे भगा दिया। फिर उस अर्हत् प्रतिमा को एक मंजूषा में बंदकर उस जहाज में रक्षा औषधि की तरह रख दिया। फिर उसने कहा कि-उदायन राजा से कहना कि अब आप ही यहाँ पर रखी हुई देवाधिदेव अरिहंत की प्रतिमा के मालिक हैं। इस प्रकार कहकर देव के अंतध्यान हो जाने पर देव की कृपा से क्षणार्ध में ही वह जहाज उड़कर वीतभयनगर पहुँच गया। तब उस पोत का स्वामी पोत से उतरकर जहाज में रहे हुए यात्रियों को अवगत कराकर स्वयं राजा की सभा में आया। अपने आभूषण (शिरस्त्राण) उतारकर राजा के सामने नमस्कार करके संपूर्ण उत्पात आदि वृतान्त राजा को निवेदन किया। देव के द्वारा अर्पित की गयी मंजूषा के बारे में भी बताया। साथ ही यह भी कहा कि समुद्र के किनारे उस अद्भुत लक्ष्मी को देखने के लिए आपको अवश्य ही आना चाहिए। तब देवकृत उपद्रव से मुक्त हुए उस पोतपति ने चमत्कार के दर्शन में पिपासु बने राजा को चलने के लिए आग्रह किया। राजा भी देवाधिदेव को स्वयं देखने के लिए हर्षित होकर अश्व की तरह वेगवान होकर चला। पोतपति राजा आदि सभी को एकत्रित करके जहाज के समीप लाया। अपने सर्वस्व की तरह उस मंजूषा को लाकर राजा के सामने रखा। राजा द्वारा पूर्व में ही आदेश दिये गये कर्मचारी द्वारा तीक्ष्ण कुल्हाड़ियों के द्वारा अपने-अपने अभीष्ट देवों को याद करके उस मंजूषा को तोड़ने का प्रयास किया गया। उनकी कुल्हाड़ियाँ टूट गयीं पर देवाधिदेव के दर्शन नहीं हुए। कहा भी गया है
निःपुण्यानां भवेत्किं वा चिन्तारत्नं दृशोः पथि ।। अर्थात् अपुण्यशालियों को क्या मार्ग में पड़ा चिन्तामणि रत्न भी दिखायी देता है?
राजा की आज्ञा से अन्य पाखण्डियों को भी अपने अपने देवों का स्मरणकर उस मंजूषा को खण्डित करने की प्रेरणा दी गयी। उनकी कुठारें भी मंजूषा के समीप जाते ही अति-कुण्ठित हो गयी। उनके मन के मनोरथ खण्डित हो गये, पर वह मंजूषा नहीं टूटी।
उस आश्चर्य को रानी प्रभावती ने भी उत्सुकता से सुना और अपनी दासी द्वारा राजा को अर्ज किया। उस दासी ने राजा के पास जाकर अंजलि-बद्ध प्रणाम करके कहा-हे देव! देवी आपको अर्ज करती हैं कि आपकी आज्ञा से मैं भी इस कौतुक को देखने के लिए आना चाहती हूँ। हो सकता है, कदाचित् ये मेरे ही देवाधिदेव हों।
तब राजा ने भी स्नेहपूर्वक उस दासी को देवी को बुलाने के लिए आज्ञा प्रदान की। राजा ने भी विचार किया कि शायद इस मंजूषा में, प्रभावती देवी के हृदय समुद्र में प्रतिबिम्बित होनेवाले अर्हत् देव रूपी चन्द्र हों।
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