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सम्यक्त्व प्रकरणम्
उदायन राजा की कथा
मधुर गीत गाये जाने से दीप्तिमान हो गया । नान्दीतूर्य की आवाज से चारों ओर पथिकों के द्वारा नृत्य किया जा रहा था, मानों दिशावधूएँ नृत्य करने के लिए आकुल व्याकुल हो रही हों । उल्लासपूर्वक नाट्य - गान, स्त्रियों के कोलाहल के प्रतिनाद से ऐसा लग रहा था, मानो स्वर्ग को ही वश में कर लिया गया हो । हर्ष के आवेग से नृत्य करते हुए मनुष्यों के पग के प्रहार से सुप्त मनुष्य भी उस महोत्सव को देखने के लिए जागृत हो गये ।
अत्यधिक जन संकुल होने से शीघ्र गति करने में अक्षम वह रथ धीरे-धीरे चलता हुआ नगर के द्वार पर पहुँचा नगर-नारियों के द्वारा पुण्य-वृक्ष पर आरुढ़ होने के कारण स्थान रूपी चावल के थालों से चावलों को उछाला गया। महात्यागी के समान धनभण्डार रूपी पुण्यराशि को देखता हुआ, जो सत्य है वह तुच्छ नहीं है - इस प्रकार विचार करता हुआ पुरजनों के द्वारा रथ पुर में प्रविष्ट हुआ। घरों से उठती हुई ध्वजाएँ आकाश में एक दूसरे से मिल रही थीं। संपूर्ण चाँदनी से बंधा हुआ वह नगर दीप्तिमंत हो रहा था।
उस जैन रथ को देखने की उत्कण्ठा वाला कोई भाग्य विभूति से दूध को निकालना छोड़कर वहाँ आया। कोई रथ दर्शन के पुण्य से स्वयं को कर्मशून्य बनाने के लिए घर को शून्य छोड़कर वहाँ आ गया। कोई परोसे हुए थाल को यों ही छोड़कर रथ-दर्शन के आनन्द रस को पीने की पिपासा से वहाँ आ गया । कामभोगों को शुष्क बनाकर, दूध से भरे स्तनों के साथ शीघ्र ही वहाँ आने में असमर्थ स्त्रियाँ अपनी निन्दा आप ही कर रही थीं। विस्फारित नेत्रों से उस महिमावन्त रथ को देखते हुए आनन्द रस से भरे हुए लोगों को भूख-प्यास का भान ही नहीं
था ।
इस प्रकार लोगों के द्वारा देखा जाता हुआ पग-पग पर पूज्यमान वह रथ तोरण से बंधे हुए राजमहल के पास आया । अन्तःपुर के समीप मनोरम चैत्य करवाकर राजा के द्वारा वह प्रतिमा रथ से उतारकर लायी गयी ।
रोज स्नान करके नये वस्त्र धारण करके प्रभावती देवी त्रिसंध्या में उस प्रतिमा की पूजा करने लगी। दूषित अष्ट कर्मरूपी प्रेतज्वर हटाने के लिए प्रतिमा के सामने देवी अखण्ड चावलों से अष्टमंगल की रचना करती । संपूर्ण विधि से चैत्य - वंदना करती हुई वह उस मन्दिर रूपी उद्यान को आनन्दाश्रु जल की उर्मियों से सिञ्चित करती थीं। प्रभु के अंतरंग स्नेह से रंजित होकर देवी दिव्यभाव रस से युक्त होकर अद्भुत नृत्य प्रतिमा के सामने करती थी । उदायन राजा भी प्रेयसी प्रिया प्रभावती की चाह में (उस पर रहे हुए स्नेह के कारण) वीणा बजाते हुए सदा ग्रामराग स्वर की संगत दिया करता था । इस प्रकार की क्रिया को देखते हुए भी राजा को प्रतिबोध नहीं हुआ। कहा भी गया
यद्वेक्षुवाटजस्यापि स्यान् माधुर्यं नलस्य किम् ।
अर्थात् ईक्षु को पीलने से मशीन में मधुरता कैसे आयगी ?
इस प्रकार एक दिन जिनवर की पूजा करते हुए महादेवी ने भक्तिरस से युक्त संगीत गाया । उदायन राजा के द्वारा भी विविध वाद्यन्त्रों के द्वारा वाद्य बजाया गया। वाद्य वादन करते हुए मानों राजा स्वयं ही वाद्य - स्रष्टा बन गया। प्रभावती देवी ने शास्त्र क्रम से मनोरम नृत्य किया, उस नृत्य के द्वारा उसने सभी रसों को मूर्तिमंत कर दिखाया। तब नृत्य में प्रकर्षता को आरूह होकर देवी के नृत्य किये जाने पर राजा को नृत्य देखकर ऐसा लगा मानो देवी युद्ध में सिर रहित धड़ की तरह नाच रही है। अहो ! यह क्या है ? इस प्रकार क्षोभ से राजा क्षुब्ध हो गया। और प्रमादवश उसका हाथ बाजे पर लड़खड़ा गया । वाद्यंत्र बेसुरा हो गया । प्रभावती के नृत्य में बाधा पहुँची। उसने कुपित होकर कहा- मेरे नृत्य के अवसर पर आपने शिरोच्छेद की तरह मेरा नृत्य छेदन करके मुझे चोट पहुँचायी है। ग्रीष्म ताप से आकुल भरे नयनों की तरह म्लान मुखवाले राजा ने कहा- हाँ ! देवी! मुझसे यह प्रमाद हो गया है। राजा के दिन के इन्दु के समान म्लान मुख को देखकर रानी ने कहा- हे देव! यह चैत्य मिथ्या भाषण का स्थान नहीं
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