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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् दासी के द्वारा रानी प्रभावती को राजा का आदेश कहा गया। देवी ने उसी समय स्नानादि के द्वारा देह की पावनता-पवित्रता को धारण किया। श्वेत परिधान से तत्क्षण अपने अंगों का गोपन करते हुए मोती-माणक आदि अलङ्कारों से युक्त होकर मानो चाँदनी ही मूर्त रूप में प्रकट हो रही हो। इस प्रकार पूजा के उपकरण आदि से युक्त होकर दासियों से घिरी हुई प्रमोद रस का संचार करती हुई देवी नृप के समीप पहुँची। तब रानी ने राजा की आज्ञा से स्वयं चन्दन के द्वारा उस चन्दन से निर्मित मंजूषा की अर्चना की। पुण्य-फल की उत्पत्ति के कारण रूपी पुष्पों से पूजा की। आत्मा के कर्म रूपी झुण्ड को उड़ाने के लिए धूप-दीप द्वारा धूम को उत्पाटित किया। आकृष्टि-मन्त्र की तरह पञ्च-नमस्कार मन्त्र से नमस्कार करके इस प्रकार कहा-अगर इस मंजूषा के भीतर त्रिकाल को जाननेवाले वीतराग देवाधिदेव अरिहन्त देव हैं, तो वे मुझे दर्शन देवें। परम अरिहन्त को ध्यानेवाली मेरे लिये इस मंजूषा रूपी आवरण योग्य नहीं है। देवी के इस प्रकार कहते ही दृष्टा जनसमूह के दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम के साथ जैसे प्रातः होते ही पभकोश खिल जाता है, ठीक वैसे ही वह मंजूषा भी अपने आप खुल गयी। उस मंजूषा के अन्दर विद्युन्माली देव द्वारा निर्मित गोशीर्षचन्दन की बनी हुयी, दिव्य अलंकारों को धारण किये हुए अम्लानपुष्पमाला धारण किये हुए जीवन्त स्वामी श्री वीरप्रभु की अद्भुत जिनेश्वर प्रतिमा प्रकट हुई। जैसे-वर्षाऋतु में सर्वत्र जल की वृद्धि हो जाती है वैसे ही प्रतिमा के दर्शन होने से जिनप्रवचन की अभूतपूर्व प्रभावना हुई।
देवी प्रभावती ने उस प्रतिमा की पूजाकर, प्रणामकर, आनन्दाश्रुओं से सरोबार होकर भक्तिपूर्वक स्तवन करना प्रारंभ किया-जयश्री वीर! विश्व के मालिक! विमल ज्ञान दर्शन के धारक। रागद्वेष से विरहित। मुक्तिश्री का वरण करनेवाले। सभी अवर देव आप देवाधिदेव का गुणगान करते हैं। वह होली के पर्व में बनाये हुए राजा के समान आप मुझे अतीव सुंदर लग रहे हैं। आपके ये तीन छत्र-तीन लोक के स्वामीत्व के सूचक हैं। आपके बिना किसी भी अन्य देव का कुछ भी प्रभाव नहीं हो सकता। आपके चलने पर अन्य देव आपके चरण-कमलों तले स्वर्ण कमल रखते हैं। जो श्री (लक्ष्मी) वीर जिनेश्वर के समवसरण में दिखायी देती है। वह श्री अरिहंत देव के सिवाय अन्यत्र देवों में नहीं सुनी गयी है। सुमेरु पर्वत की तरह तारों के करोड़ों देव हैं, पर रात्रि में भी वे चाँद का साथ नहीं छोड़ते हैं। हे देव! आपके दर्शन से जो अतिशय आनन्द मुझे प्राप्त हुआ है, उसे अन्य वचनों से कैसे कहुँ? वह तो आपकी वाणी का ही विषय है। इस प्रकार वहाँ रहे हुए जो आपकी स्तुति करते हैं, वे कर्म कालिमा को क्षीण करके शीघ्र ही भवान्त को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार देवी के स्तवन को सुनकर एवं प्रतिमा को देखकर कौन अरिहंत धर्म को हर्ष से रोमांचित होकर प्राप्त नहीं करेगा? केवल गाद मिथ्यात्व के उदय वाले एवं भूत-पिशाच रूपी व्यन्तर देवों के परवश बने हुए लोग ही उस कठिनता से प्राप्त होनेवाली बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त नहीं कर पाते।
राजा उदायन दुर्लभ बोधि होने से सम्यक्त्व प्राप्त न कर सका। पाखंडियों ने भी प्रशंसा करते हुए कहा-धन्य है रानी प्रभावती महासती! निश्चित ही इसका भाग्य जगा है। निष्पुण्य वालों को ही इस प्रकार के देवदर्शन दुर्लभ हैं। पर इस महासती को तो सत्य रूपी समुद्र में चन्द्र रूपी अर्हत् देव के दर्शन प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार वीर जिनेश्वर देव निश्चय ही यह देवाधिदेवता हैं, क्योंकि इस प्रकार की अतिशय स्फूर्ति उनके प्रतिनिधियों में भी देखी जाती है। देवी के स्नेह से प्रभावित होकर देवाधिदेव के आगे नरेन्द्रों ने भी सुन्दर संगीत उत्सव किया। नगररक्षकों को आदेश दिया कि पताकाओं के समूह के आधाररूप बाजारों की शोभा को अभी सुन्दर बनाओ।
फिर देवाधिदेव की प्रतिमा को रथ पर आरोपित करके राजा ने शीघ्रता से नगर में प्रवेश करवाना प्रारम्भ किया। रथ को जाते हुए देखकर प्रतिमा-दर्शन के कौतुक से सभी पुरजनों के द्वारा आदर सहित उठकर अभ्युत्थान आदि किया गया, तब वह नगर ध्वजाओं के चलित होने से नृत्याभास से, स्त्रियों के धवल परिधान में मंगल
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