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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम्
करता है। तब पूर्व में किये हुए दुष्कृत्यों के कारण पटह (ढोल) उसके कण्ठ में लगा, लगते ही अनचाहे अचानक महाविष की तरह से उसको कालज्वर के समान वह लज्जित व परास्त होता हुआ उसे गले से उतारने में समर्थ नहीं हुआ।
तब हासा-प्रहासा ने अपने प्रिय की यह स्थिति देखकर कहा-लज्जा न करके आपको यह वाद्य अवश्य ही बजाना चाहिए। तब वह वाद्यंत्र को बजाता हुआ इन्द्रों के समक्ष गया। दूसरी बार वाद्यंत्र बजाते हुए उसके दिल में महादुःख हुआ। अहो! इन कल्पवासी देवों की महा ऋद्धि देखो! हा! हा! मुझ जैसे-अपुण्यशालियों को तो देवों की दासता ही मिली। मेरे द्वारा पूर्व भव में कुछ भी सुकृत नहीं किया गया होगा। तभी तो देवों के किङ्कर के रूप में मैं पराधीन बना हूँ।
नागिल देव भी यात्रा करता हुआ वहाँ आया। पूर्व भव के मित्र-स्नेह को अवधिज्ञान से उसने जाना। अपने आगे दीनभाव से वाद्यंत्र बजाते हुए पूर्वभव के मित्र को देखा। उस पर दया करके उससे बोलने के लिए शीघ्र ही उसके पास गया। नागिल देव के अंगों की प्रभा से उत्पन्न चक्र से अतिक्रान्त होकर सूर्य के तेज के समान उसके तेज को देखने के लिए समर्थन होने वाले नेत्र-रोगी की तरह वह वहाँ से सरकने लगा। तब विद्यन्माली को देखकर अमर दैविक कान्ति को शांतकर उससे बोला - क्या मुझे नहीं जानते? उसने भी इस प्रकार से कहा-कि आप आये? मैं आप जैसे इन्द्रादि देवों को नहीं जानता हूँ।
पुनः नागिल देव ने उससे कहा-बिना किसी लागलपेट के बताता हूँ कि पूर्वभव में मैं और तुम कैसे थे और अब कैसे हैं? हासा-प्रहासा देवियों ने खिन्न वाणी से कहा-आप हमारे स्वामी हैं। इसके अलावा हम और कुछ नहीं जानते।
नागिल ने कहा-पूर्वजन्म में तुम्हारे रूप पर मोहित होकर इस प्रकार से मरकर यह सुर किङ्कर हुआ। यह सब देखकर वह भी जान गया कि यह मेरा मित्र नागिल है। नागिल ने कहा-मैंने तो पण्डित मरण से उच्च गति प्राप्त की, पर तुमने मेरे वचनों का आदर नहीं किया। अतः सुरकिङ्कर के रूप में पैदा हुए।
तब विद्युन्माली ने कहा-हाथी को वश में करने के लिए खड्डा खोदने के कष्ट की तरह अब मैं भी कष्ट सहन करूंगा। अर्हत् दीक्षा ग्रहण करके तुम्हारे जैसा देव बगा। पश्चात्ताप करता हुआ स्वर्णकार देव बोला-जो हुआ, सो हुआ। हे मित्र! अब क्या करूँ-यह आदेश दो।
तब नागिल देव ने कहा कि देवों में सर्वविरति या देशविरति नहीं होती। आर्हत रूपी धर्म के सर्वस्व रूप सम्यक्त्व को तुम ग्रहण करो। हे मित्र! यह सम्यक्त्व सिद्धिगामियों में रेखा की तरह प्राप्त होता है। जैसे जल के बिना औषध निष्फल है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना दीक्षा निष्फल है। स्वामी वीर की जीवन्त प्रतिमा को बनाओ। ऐसा करने से कदाचित् तुम्हारी धर्मबुद्धि स्थिर बनें। इससे जन्मान्तर में भी सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति तुम्हें सुलभ होगी। कभी भी तुम्हें दुर्गति आदि दुःख भी प्राप्त नहीं होगा। जो छोटी सी भी अर्हत् प्रतिमा की प्रतिष्ठा करता है, वह निर्वाण नगर में स्वयं को सदा-सदा के लिए स्थापित करता है। जिस भव्य के द्वारा अर्हत् प्रतिमा नित्य अर्चित-पूजित होती है, वह क्षणमात्र में ही धन व पुण्य को बार-बार प्राप्त करता है।
स्वर्णकार देव भी अर्हत् धर्म की संभावनाओं को देखकर एवं नागिल देव की ऋद्धि देखकर उसके वचनों की शरण में चला गया। इस प्रकार नागिल उसे जैन धर्म में आरुढ़कर प्रथम देवलोक के इन्द्र की सेवा से उसे मुक्त करवाकर अच्युत विमान में चला गया।
कुमारनन्दी देव भी श्रेष्ठ अर्हद् भक्ति के द्वारा महामतिवाला होकर महाहिमवान् पर्वत में गया। गोशीर्षचन्दन की लकड़ी का छेदन करके जगत् को आनन्द देनेवाले श्री महावीर जिनेश्वर की जीवन्त प्रतिमा की रचना की। फिर
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