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सम्यक्त्व प्रकरणम्
|| ॐ नमो वीतरागाय ।।
वादिमसिंहाऽऽचार्यवर्यश्रीचन्द्रप्रभाचार्यविरचितम् आचार्यश्रीचक्रेश्वरसूरिप्रारब्धतत्प्रशिष्याऽऽचार्यश्रीतिलकसूरिनिर्वाहितवृत्तिसमेत्तम्
सम्यक्त्व प्रकरणम् (दर्शन शुद्धि प्रकरणम्)
जैसे कमल बावड़ी से घटीयन्त्र की धारा द्वारा बाहर निकलता हुआ जल क्रमशः उद्यान के पेड़-पौधों को सिञ्चित करते हुए निरन्तर उद्यान को हरियाली प्रदान करता है, उसी प्रकार जिनकी वाणीरूपी कमल-बावड़ी से निकलती हुई वचन-धारा से जल की बूंदों के समान गुण-समूह उच्छ्वलित हो रहा हो, ऐसे गुणानुरागी आचार्यों की श्रेणि-परम्परा द्वारा उसी वाणी के तत्त्वरूपी जल द्वारा आज भी इस शासनरूपी उद्यान को सफलतम् प्रयत्नों द्वारा सिञ्चित किया जा रहा है, ऐसे तीन जगत् के अधिपति श्री वर्धमान जिनेश्वर को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता
इस श्रुतसार रूपी सम्यक्त्व ग्रन्थ का अर्थ बहुत विशाल है। अतः न अति विस्तार से एवं न अति संक्षेप से व्याख्या न करते हुए मैं सरल व सुबोध वृत्ति को रचने का प्रयास करूंगा।
जो इस ग्रन्थ से अपरिचित हैं, वे शुभमतिवाले मन की एकाग्रता के साथ इसका श्रवण करें। जो इससे परिचित है। वे उसकी गहरायी में उतरकर आत्म शुद्धि को प्रकट करें। इस तत्त्व ज्ञान को श्रोताओं को सुनाये जाने पर श्रोताओ में आन्तरिक तत्त्वज्ञान का प्रकाश होता है।
इसी अभ्यास के अनुराग से इसकी रचना करने के लिए मेरी बुद्धि प्रवृत्त हुई है, ताकि किसी भव्य के उपकार से परम्परा से मेरे पुण्य की वृद्धि हो।
इस वृत्ति को रचते हुए मेरे मन में शंका भी उत्पन्न होती है कि कदाचित् प्रतिस्पर्धा से भरे हुए विद्वानों में कोई मुझसे भी ज्यादा विद्वान् हो सकते हैं, अथवा मेरे समान जिनकी मति है या फिर मुझसे भी हीन मतिवाले के द्वारा यह वृत्ति कैसे पदी जायगी-कोई ऐसा भी शक करे। तो, मेरा इस वृत्ति को रचने से क्या लाभ होगा?
किन्तु मन में एक विश्वास उत्पन्न होता है कि श्री चन्द्रप्रभसूरिजी द्वारा गुम्फित वचनों के अर्थ को देखने में तत्पर चित्त अथवा उस अर्थ को पढ़ने से वचन पवित्रात्मकता को प्राप्त करेगा। उसको लिखने का कार्यमय व्यापार सारमय होगा, अतः ऐसे सत्कर्म में लीन मेरी आत्मा का परमार्थतः फल सिद्ध होगा।
क्षेत्र-स्वभाव से ही महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा यहाँ भरत-क्षेत्र में शुभ-भावना नाम-मात्र की है। सम्पूर्ण बल, बुद्धि, आयुष्य आदि की हीनता को प्राप्त होनेवाला यह अवसर्पिणी काल है, मिथ्यात्व के उदय का कारक यह दुःषम नाम का पाँचवाँ आरा है। मनःपर्यव एवं केवलज्ञान का विच्छेद हो चुका है, जाति-स्मरणज्ञान का संगम भी लगभग नहीं है। यह काल भस्मक ग्रह के उद्गम से प्रवृत्त है। असंयतों की महिमा-पूजा की प्रचुरता है-यह दसवाँ आश्चर्य है। और भी, इस युग के मनुष्य महाव्रत स्वीकार कर लेने पर भी संयम में रत नहीं देखे जाते हैं। परम्परा से श्रावक भी सम्यक्त्वादि गुणों के द्वारा आत्मा को भावित नहीं करते हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी वर्तमान में धर्म विच्छेद को प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि समवसरण में विराजमान् भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा दुःप्पसह