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समीचीन-शर्मशास्त्र
ग्रन्थपर सन्देह कुछ लोगोंका खयाल है कि यह ग्रंथ उन स्वामी समन्तभद्रा. चार्यका बनाया हुआ नहीं है जो कि जैन समाजमें एक बहुत बड़े प्रसिद्ध विद्वान होगये हैं और जिन्होंने 'देवागम' (आप्तमीमांसा) जैसे अद्वितीय और अपूर्व तर्क-पूर्ण तात्त्विक ग्रंथोंकी रचना की है; बल्कि 'समंतभद्र' नामके अथवा समन्तभद्रके नामसे किसी दूसरे ही विद्वानका बनाया हुआ है,और इस लिये अधिक प्राचीन भी नहीं है । परन्तु उनके इस खयाल अथवा संदेहका क्या कारण है और किस आधार पर वह स्थित है, इसका कोई स्पष्टप्रमाण अभीतक उनकी ओरसे उपस्थित नहीं हुआ. मात्र कुछ कल्पनाएँ की गई हैं जिनका पहले यथा समय निरसन किया जा चुका है । फिर भी इस व्यर्थके संदेहको दूर करने, उसकी संभावनाको मिटा देने और भविष्यमें उनकी संततिको आगे न चलने देनेके लिये यहाँ पर कुछ प्रमाणोंका उल्लेख कर देना उचित जान पड़ता है और नीचे उसीका यत्किंचित् प्रयत्न किया जाता है
(१) ऐतिहासिक पर्यालोचन करनेसे इतना ज़रूर मालूम होता है कि 'समन्तभद्र' नामके दो चार विद्वान् और भी हुए हैं; परंतु उनमें ऐसा एक भी नहीं था जो 'स्वामी' पदसे विभूषित अथवा इस विशेषणसे विशेषित हो; बल्कि एक तो लघुसमंतभद्रके नामसे अभिहित हैं, जिन्होंने अष्टसहस्री पर 'विपम-पदतात्पर्यटीका' नामक एक वृत्ति (टिप्पणी) लिखी है। ये विद्वान स्वयं भी अपने को 'लघुसमंतभद्र' प्रकट करते हैं। यथा
देवं स्वामिनममलं विद्यानंदं प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोम्यष्टसहस्रीविषमपदं लघुसमंतभद्रोऽहम् ॥