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गाथा १
कहलाती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव समयसार का परिभाषण करते हैं अर्थात् वे समयप्राभृत के अर्थ को ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषा सूत्र रचते हैं।"
इसप्रकार यह स्पष्ट है कि यह समयसार नामक ग्रन्थाधिराज तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में समागत, गौतमादि गणधरों द्वारा रचित एवं भद्रबाहुपर्यन्त सभी श्रुतकेवलियों द्वारा कथित द्वादशांग के बारहवें अंग के ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के समय नामक प्राभृत के अनुसार लिखा गया है। ___ इस ग्रन्थाधिराज समयसार का मूल प्रतिपाद्य भगवान आत्मा का शुद्ध स्वरूप है; अत: वह अभिधेय हुआ। इस ग्रन्थ में जिन पदों का, शब्दों का प्रयोग किया गया है, वे सभी पद शुद्धात्मा के प्रतिपादक हैं। अत: उन पदों और शुद्धात्मा में वाचक-वाच्य संबंध है, प्रतिपादकप्रतिपाद्य संबंध है और शुद्धात्मा की प्राप्ति ही मूल प्रयोजन है।
इसप्रकार इस ग्रन्थ के अभिधेय, संबंध और प्रयोजन तो स्पष्ट ही
इसप्रकार इस पहली गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ध्रुव, अचल, अमल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों की वंदना कर केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित समयसार नामक ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं।
यद्यपि विवेक का स्थान सर्वोपरि है, किन्तु वह विनय और मर्यादा को भंग करनेवाला नहीं होना चाहिए। विवेक के नाम पर कुछ भी कर डालना तो महापाप है; क्योंकि निरंकुश विवेक पूर्वजों से प्राप्त श्रुतपरम्परा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
- आप कुछ भी कहो, पृष्ठ २५)