________________
[ २३ ]
बोल २६ वां पृष्ठ ५३ से ५ढ़ तक
मिथ्यादृष्टि ( अज्ञानी) की तपोदानादिरूप पारलौकिक क्रियाएं संसार के ही कारण हैं । सम्यग्दृष्टिकी ये ही क्रियाएं मोक्षके हेतु हैं । सुयगढांग श्रुतः १ अ० ८ गाथा २३ । २४
बोल सत्ताइसवां पृष्ठ ५६ से ६० तक
मिथ्यादृष्टि ( अज्ञानी ) के घटपटादिज्ञान भी कारण विपर्य्यय, संबन्ध विपर्य्यय और स्वरूप विपर्य्ययके कारण अज्ञान हैं। कर्म विशुद्धिकी उत्कर्षापकर्णको लेकर चौदह गुणस्थान कहे गये हैं सम्यक् श्रद्धा को लेकर नहीं । ( समवायांग सूत्र )
बोड २८ वां पृष्ठ ६० से ६३ तक
असोचा केवलोका विभंग अज्ञान, सम्यक्त्व प्राप्तिका साक्षात् कारण होने पर भी जब वीतरागकी आज्ञामें नहीं है तब उसके प्रकृति भद्रता आदि गुण, जो कि सम्यकृत्व प्राप्तिके परम्परा कारण हैं वे आज्ञामें कैसे हो सकते हैं ।
बोल २९ वां ६३ से ६४ तक
भगवती शतक १३ उद्देशा १ के मूलपाठमें वस्तुस्वरूपको जानने की चेष्टा का नाम " हा ' है । उस चेष्टाके वाधक कारणोंको हटा देना "अपोह" है । सजातीय और विजातीय धर्मकी आलोचना करनेका नाम क्रमशः मार्गण और गवेषण है अतः मार्गण शब्दका जिनभाषित धर्म की आलोचना और गवेषण शब्दका अधिक धर्मकी आलोचना अर्थ करना अज्ञान है ।
बोल ३० वां पृष्ठ ६४ से ६७ तक
उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३४ गाथा ३१-३२ में विशिष्ट शुक्ल लेश्याका लक्षण कहा है सामान्य शुक्लेश्याका नहीं। जो ध्यान, श्रुत और चारित्र धर्मके साथ होता है वही धर्मध्यान है ।
बोल ३१ वां पृष्ठ ६७ से ६९ तक
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी उपमा क्रमशः सुगन्ध और दुर्गन्ध घटकी नन्दी सूत्रकी टीकामें दी है ब्राह्मण और भङ्गीके घडेकी नहीं ।
बोट ३२ वां पृष्ठ ६९ से ७० तक
साधुको साधु समझ कर उसके निकट शील तप और सुपात्र दानकी आज्ञा मांगने वाला पुरुष मिथ्यादृष्टि नहीं है सम्यग्दृष्टि है ।
बोल ३३ वां पृष्ठ ७० से ७१ तक
सूर्याभ देव के अभियोगिया देवताके मिथ्यादृष्टि होनेमें कोई प्रमाण नहीं है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com