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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
बताया है-यह प्राणवध, १ पापरूप है, २ अत्यन्त क्रोध पैदा करने के कारण चण्ड है, ३ नीचातिनीच लोगों का कृत्य होने से क्षुद्र है, ४ रौद्रध्यान से होने के कारण रुद्र है, ५ अत्यन्त साहस का कार्य होने से अथवा सहसा किये जाने के कारण साहसिक है, ६ म्लेच्छ आदि लोगों का कार्य होने से अनार्य है, ७ इसके करने में पाप से घृणा न होने के कारण निघृण है, ८ अमानुषिक कर्म होने के कारण नृशंस है, ६ अत्यन्त भयजनक होने से महाभय है, १० प्रत्येक प्राणी के लिए भयदायक होने से अथवा दूसरों को भय दिखाने वाले के मन में भी प्रतिभय पैदा करने वाला होने से प्रतिभय है, ११ अतिभय जनक होने से अतिभय है, १२ दूसरों के मन में डर बिठाने वाला होने से भयानक-भयोत्पादक भी है, १३ दूसरों को पीड़ित करने, हैरान करने या सताने वाला कृत्य होने से त्रासनक भी है, १४ अन्यायकारी कृत्य होने से अन्याय्य है, १५ उद्वेग-चंचलता पैदा करने वाला होने से उद्वजनक है, १६ इस क्रिया के करते समय परलोक या दूसरे प्राणियों की या समाज, राष्ट्र आदि की कोई अपेक्षा (परवाह) नहीं की जाती, यह बेखटके की जाती है, इसलिए निरपेक्ष है, १७ इसमें धर्म का नामोनिशान नहीं है, इसलिए निधर्म-धर्मरहित है; १८ इस कृत्य के करने में दयारूप पिपासा नहीं होती; इस कृत्य के करने वाले के स्वार्थ की प्यास किसी भी तरह नहीं बुझती, इसलिए निष्पिपास भी है, १६ इस कृत्य के करने में हृदय से करुणा निकल जाती है, इसलिए निष्करुण-करुणारहित है, २० इस कुकृत्य का अन्तिम नतीजा (फल) नरक गमन होने से इसे निरयवासगमननिधन कहा है, २१ मोह-कृत्यमूढ़ता और महाभय में प्रवृत्त करने वाला होने से अथवा यह कृत्य कर्ता में मूढ़ता व महाभय बढ़ाने वाला होने से मोहमहाभयप्रवर्तक या मोहमहाभयप्रवद्धक भी है, २२ यह कृत्य वध्य प्राणी के मन में मृत्यु के समय वैमनस्य (वैर) पैदा करने वाला होने से अथवा वधकर्ता की आत्मा को मृत्यु के समय विमना-खिन्न बना देने वाला होने से या मृत्यु के समय परस्पर वैमनस्य पैदा करने वाला होने से 'मरणवैमनस्य' है।
व्याख्या इस प्रथम सूत्र में जिनेन्द्रदेव ने विभिन्न पहलुओं और दृष्टिकोणों से प्राणवध (हिंसा) का स्वरूप बताया है। अब क्रमशः प्रत्येक का विशदरूप से विवेचन करते हैं
पाप-प्राणवध को 'पाप' इसलिए कहा गया है कि इससे पापकर्म की प्रकृतियों का बन्ध होता है, तथा असत्य, चोरी आदि अनेक पापों का जनक भी है।