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कोण है । परन्तु भाषाविज्ञान को दृष्टि से ऐसा अर्थ ठीक नहीं है। किसी भी कोष में अथवा व्युपत्ति-शास्त्र में "प्रकृति" शब्द का अर्थ "संस्कृत" नहीं लिखा गया है। यहाँ "प्रकृति" राज्य के मुख्य अर्थ "स्वभाव" अथवा "जनसाधारण" लेने में किसी तरह का विरोध नहीं है। "प्रकृत्या स्वभावेन सिचं इति प्राकृतम् अथवा “प्रकृतीनां - साधारण जनानामिदं प्राकृतम्” यही व्यत्पत्ति वास्तविक और प्रमाणयुक्त मानी जा सकती है। तदनुसार यहाँ पर सुविधानुसार प्राकृत-शब्दों की सामनिका संस्कृत शब्दों के समानानन्तर का का आधार लेकर की जायगी। क्योंकि बिना समानान्तर रूप के साथनिका की रचना नहीं की जा सकती है। जिस भाषा प्रवाह का परिवर्तित रूप 'प्राकृत" में उपलब्ध है; वह भाषा-प्रवाह लुप्त हो गया है; अतः समानान्तर आधार के लिये हमें संस्कृत भाषा की ओर अभिमुख होना पड़ रहा है ऐसे तात्पर्य को अभिव्यक्ति प्रकृतिः संस्कृत" शों द्वारा जानना प्रथम संस्कृतव्याकरण का निर्माण सात अध्यायों में करके इस आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की रचना की जा रही है। संस्कृत व्याकरण के पश्चात् प्राकृत-करण का विधान करने का ताल यह है कि प्राकृत भाषा के संस्कृत के समानान्तर ही होते हैं और कुछ को साधना करनी पड़ती है। अतः प्राकृत शब्द 'शाम' यह बताने के लिये उपरोक्त सूत्र की रचना की गई है। प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के जैसे ही जिन जिन समानान्तरादों की उपलब्धि पाई जाती है; उन शब्दों की सावना संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही जानता। जो कि सात अध्यायों में पहले ही संगु फिल कर दिये गये है।
* प्राकृत व्याकरण *
कुछ तो
नहीं है;
संस्कृत रूपों से भिन्न रूपों में पाये जाने वाले शब्दों की सिद्धि अर्थ इस क्याकरण की रचना की जा रही है । प्राकृत भाषा में भी प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा इत्यादि सभी आवश्यकीय वैयाकरणीय व्यवस्थाएँ भी संस्कृत व्याकरण के समान हो जानना । इन का सामान्य परिचय इस प्रकार है:- नाम, धातु, कश्यप, उपसर्ग भाव "प्रकृति" के अन्तर्गत समझे जाते हैं। संज्ञाओं में जोड़े जाने वाले "सि" आदि एवं धातुओं में मोड़े जाने वाले 'ति' आदि प्रत्यय कहलाते हैं पुल्लिंग स्त्री लिंग तथा नपुंसक लिंग में तीन किग होते है। फर्ता, फर्म, करण संप्रदान अपादान संबंध अधिकरण और संबोधन कारक होते हैं।
समास छह प्रकार के होते हैं-अव्ययीभाव, इंड. कर्मधारय हितु और बहुबीहि। यह अनु हेमचन्द्राचार्य रचित सिद्ध हेम व्याकरण के अनुसार जानना स्वर और प की परंपरापूर्व काल से चलो आ रही है, इनमें से ऋ, लृ, लू, ऐ, औ, ङ, प्र. स. प. किसनीय-विस और प्लुत को छोड़ करके वर्गव्यवस्था लौकिक वर्ण-व्यवस्थानुसार समझाना चाहिये और 'म' वे अपने अपने वर्ग के अक्षरों के साथ संयुक्त रूप से माने हलत रूप से पाये जाते हैं। 'ऐ' और 'ओ' भी कहीं कहीं पर देखे जाते हैं। जैसे-यम् = अयं । सौन्दर्यम् - सोरिय और कौरवाः-कौरवाः । इम उदाहरणों में 'ऐ' और 'ओ' की उपलब्धि है। प्राकृत भाषा में स्वर बहुवचन भी नहीं होता है। शिववन को अभिव्यक्ति बहु के रूप में होती है, एवं अतुर्थी-वचन का उल्लेख षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय संयोजित करके किया जाता है।
रहित व्यञ्जन नहीं होता है। द्विवचन और चतुर्थी का
तवम् संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप अर्थ होता है। इस
सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का सोव ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'में' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर केवं रूप सिद्ध हो जाता है। सीन्दयम् संस्कृत रूप है। इसका प्रकृत रूप सौमरिमं होता है। इसमें सूत्र संख्या १२५ से सात'' के स्थान पर अनुम्वार को प्राप्ति १-१७७ से '' का लोप और २-७८ से 'प' का लोप २ १०७ से शेष हलन्त '' में आगम कप 'इ' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त भू' का अनुस्वार होकर सोअरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। कौरवाः संस्कृत है। इसका प्राकृत क