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क्रमांक विषय
सूत्रांक प्रथम अथवा तृतीय व्यजन की प्राप्ति का विधान ११४ "दोध" शब्द में "र" के लोप होने के पश्चात "ध" के पूर्व में
श्रागम रूप "ग" प्रारित का वैकल्पिक विधान अनेक शब्दों में लोपावस्था में अथवा अन्य विधि में श्रादेश रु.प से प्राप्तव्य "द्विर्भाव" की प्राप्ति की निषेध विधि अनेक शब्दों में धादेश प्राप्त व्यजन में वैकल्पिक रूप से द्वित्व प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से "अ" और "," स्वर की प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से क्रम से "अ" और "इ" दोनों हो स्वर की प्राप्ति का विधान
१० से ११० "अर्हत्" शब्द में श्रागम रूप से क्रम से "उ", "अ" और "इ' तीनों ही स्वर की प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से "उ" स्वर की प्राप्ति का विधान ११२ से ११४ "ज्या" शब्द में आगम रूप से "ई" स्वर की प्राप्ति अमुक शब्दों में स्थित व्यनों को परस्पर में व्यत्यय भाव की प्राप्ति का विधान
११६ से १२४ अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से किन्तु वैकल्पिक रूप से नूतन शब्दादेश-प्राप्ति का विधान
१२५ से १३८ अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से और नित्यमेव नूतन शब्दादेश-प्राप्ति का विधान १३६ से "शील-धर्म-साधु-' अर्थ में प्राकृत-शठनों में जोड़ने योग्य 'इर" प्रत्यय का विधान "क्त्वा" प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में "तुम् अत्-तूण-तूआण" प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति का विधान "तद्धिन" से संबंधित विभिन्न प्रत्ययों की विभिन्न अर्थ में प्राप्ति का विधान
१४७ से १७३ कुछ रूढ और देश्य शब्दों के सम्बन्ध में विवेचना __ अव्यय शब्दों की भावार्थ-प्रदर्शन-पूर्वक विवेचना
१७५ से २१८
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