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मंघमहादये निहिभत्ते जं सेसं, तमंकसारेण गणिय जो देसी। संवच्छररायाओ, प्रारम्भं दसाकमे भणिया ॥६॥ जो जंको जं देसे, बोधव्वो देसगामनगरस्स ।
आइच्चाइगहाणं, फलं च पभणंति गीयत्था ॥६२॥ जं जम्मि देसनयरे, गामे ठाणे वि नत्थि मूल धुवो । तं नामेण य रिक्खं, रुईकं करिय तम्मिस्सं ॥६॥ निहिभत्ते जं सेसं, धुक्मणियं देसनयरगामाणं । मूलदसाकमगणियं, पुस्तकम्मं वियाणाहि ॥६॥ मेहबुट्ठो अणवुट्टी, सपरचकं च रोगभयं । अन्नसुपत्ती नासो, रायाकडं चहवं च ॥६५॥ संवच्छररायायो, गणियव्वं देसी [स?] कमेण फलं।
प्राइचाइग्गहाणं, सुहासुहं जाणए कुरुले ॥६६॥ कर नवका भाग देला, जो शेष बचें वह वर्तमान संवत्सर के राजा से विं. शोत्तरी,शा क्रन से गिनकर फल कहना ॥६१॥ जो जो अक जिस जिस देश में हैं वे देश गांव नगर के अंजानना । इनसे विद्वानों ने रवि आदि ग्रहों का फल कहा है ॥६२॥ जो जो देश नगर गांव या स्थान का मूल धवांक न हो तो उनके दिशा के १४५ आदि मूल अंक, वर्ष के राजा का विंशोत्तरी शा का मूल वर्षीक, शनि जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से गांव के नक्षत्र तक के अंक और दिशा के अंक ये सव इकठे कर ग्यारह से गुणा करना, पीछे उसमें नवका भाग देना, शेष रहे उस ग्रह के अनुसार देश नगर गांव का मूल दशाक्रम से फल कहना ॥६३, ६४॥ मेववृष्टि , अनावृष्टि, स्वचक्र और परचक्र का भय, रोगभय, अन्नाज की उत्पत्ति तथा विनाश, राजकष्ट, सेना में उपद्रव ये सब संवरत्स के राजा से देशक्रम से सूर्य आदि ब्रहों का शुभाशुभ फल को कुशल पुरुष जाने ।। ६५, ६६ ॥
"Aho Shrutgyanam"