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महर्दिक यावत् महासुख वाला देव लोकान्त में रहकर अलोक में अपने हाथ यावत् उसको संकोचने और पसारने में समर्थ नहीं है । क्योंकि जीवों के अनुगत आहारोपचित, शरीरोपचित और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं । तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों की और पुद्गलों की गति पर्याय कही गई है । अलोक में जीव व पुद्गल नहीं है अतः देव यावत् पसारने में समर्थ नहीं है ।
विवेचन - जीवों के साथ रहे हुए पुद्गल, आहार रूप में, शरीर रूप में, कलेवर रूप में तथा श्वासोच्छ्वास रूप में उपचित होते है । अर्थात् पुद्गल सदा जीवानुगामी स्वभाव वाले भी होते हैं ।
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जिस क्षेत्र में पुद्गल होते हैं वहीं पुद्गलों की गति होती है इसी प्रकार पुद्गल के आश्रित जीवों और पुद्गलों का गति धर्म होता है । तात्पर्य यह है कि जिस क्षेत्र में पुद्गल होते हैं उसी क्षेत्र में जीवों की व पुद्गलों को गति होती है अलोक में धर्मास्तिकाय भी नहीं है अतः वहाँ जीव व पुद्गलों भी नहीं है और जीव और पुद्गलों की गति नहीं होती है ।
कहा जाता है कि तेजोलेश्या ( सूर्य का आतप-1 प-किरण ) का विकास न होने के कारण आदमी में चंचलता बढ़ती है अतः वह अधिक नशा करता है, मानसिक बीमारियां बढ़ती है, तनाव बढ़ता है । सूर्य का आतप स्वस्थता का बहुत बड़ा हेतु है । जहाँ सूर्य का प्रकाश, सूर्य की रश्मियां सूर्य का आतप न मिले, वहाँ रहना अच्छा नहीं होता । आतापना तेजस शक्ति के विकास का एक साधन है । तैजस शक्ति के विकास का बहुत बड़ा साधन है भवन का सेवन | जिससे तेजस शक्ति का विकास करता है वहाँ व्यक्ति को सूर्य स्वर का, सूर्य नाड़ी का प्रयोग विवेक पूर्वक करना चाहिए । सूर्य की तेजस शक्ति तेजोलेश्या के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है । तेजोलब्धि- तेजोलेश्या के विकास के साधनों में एक साधन आतापना, सूर्य का आतप लेना । प्रस्तुतः आतापना तेजोलेश्या के विकास का एक साधन है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान महावीर की स्तुति में कहा है-- प्रभो ! आपका ज्ञान अनंत है, यह आपका ज्ञानातिशय है । आप अतीतदोष हैं, यह आपका अपायातिशय है । भगवान का सिद्धान्त अवाध्य था । यह उनका वचनातिशय था । आयारो का प्रसिद्ध सुक्त है—खणं जाणहि पंडिए - जो क्षण को जानता है वह सदा मंगल का अनुभव करता है । प्रेक्षाध्यान का एक प्रमुख सूत्र हैसंपक्खिए अप्पगमप्पणं अर्थात् आत्मा को आत्मा के द्वारा देखो । प्रेक्षाध्यान से अप्रशस्त लेश्या पर अंकुश लगाया जा सकता है । मन को दुर्बल बनाने के पांच
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